एक साथ चुनाव कराना उचित नहीं

भारत एक संघीय राज्य है, जिसके प्रांतों को कुछ विशिष्ट विषयों पर स्वायत्त प्रशासन का अधिकार संविधान ने ही दे रखा है। विधानसभाओं और राज्य सरकारों का संघटन स्वायत्तता के आधार पर किया गया है। इस प्रकार हमारे संविधान का एक विशिष्ट गुण संघवाद है। केन्द्र सरकार संविधान के अनुच्छेद 352, 355 और 356 में उल्लिखित कुछ आपातकाल स्थितियों के अतिरिक्त राज्यों के प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
कुछ अपवाद
भारत के इतिहास में दो ऐसे अवसर आए हैं, जब अनुच्छेद 174 (2) (बी) के अंतर्गत नौ राज्यों की विधानसभाओं को विघटित कर दिया गया था। 1977 में आपातकाल के बाद आई जनता पार्टी ने ऐसा कदम उठाया था। 1980 में सत्ता में आई काँग्रेस ने एक बार फिर से ऐसा किया था। तत्कालीन केन्द्र सरकारों ने संविधान के अनुच्छेद 174 का एक प्रकार से अप्रत्यक्ष प्रयोग करके राज्यों के कामकाज में हस्तक्षेप किया था।
एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं
केन्द्र एवं राज्य सरकारों के चुनाव एक साथ कराने की स्थिति में कई राज्य सरकारों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले ही विघटित करना होगा। जबकि संविधान में दिए तीन अनुच्छेदों के अलावा ऐसा कोई विकल्प नहीं दिया गया है, जब केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को भंग करने की अधिकारी हो।इस प्रकार का कोई भी प्रयत्न असंवैधानिक होगा। अतः एक साथ चुनाव कराने का प्रयत्न करना, संवैधानिक रूप से संभव नहीं है।
दूसरी स्थिति केन्द्र सरकार के कार्यकाल के साथ-साथ राज्य सरकार का कार्यकाल पूरा होने की आती है। क्या उस स्थिति में लोकसभा एवं राज्य का चुनाव एक साथ कराया जाना उचित है? स्पष्ट रूप से यह कानूनी विषय नहीं है। परन्तु इस प्रकार के चुनाव में मतदाता दो स्तरों पर अपना मत देते हैं। बहुत संभव है कि वे राज्य-स्तर के उम्मीदवार को चुनते समय राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्थितियों से प्रभावित होकर अपना मत उसे दे दें, जिसे वे न देना चाहते हों। ऐसी स्थिति में जनता के मत के साथ न्याय नहीं हो पाता है। इस प्रकार चुनाव का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
दोनों ही स्थितियों में एक साथ चुनाव कराया जाना संघवाद का मखौल उड़ाने जैसा है। इसे न तो संवैधानिक बताया जा सकता है और न ही औचित्यपूर्ण।
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Milan Tomic

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