चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का प्रश्न

भारत का चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है, जिसने अपने उद्भव के साथ ही पूरे विश्व के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। 2019 के चुनावों में चुनाव आचार संहिता के लगातार हो रहे उल्लंघन के प्रति उसने जैसा कमजोर रवैया दिखाया है, उससे उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न-चिन्ह लग जाता है।
चुनाव आयोग की तरह ही भारतीय प्रजातंत्र में चुनाव आचार संहिता की महत्वपूर्ण भूमिका है। बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय प्रजातंत्र में ही इसकी खोज की गई है, जिससे चुनावों को निष्पक्ष रूप से सम्पन्न किया जा सके। फिलहाल  लगातार आचार संहिता का उल्लंघन किया जा रहा है। लेकिन चुनाव आयोग द्वारा धीमी गति से की जा रही कार्यवाही ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
  • चुनाव आयोग की चुप्पी या कार्यवाही में विलंब का बहुत बड़ा कारण चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में ढूंढा जा सकता है। चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सरकार करती है। अन्य देशों में होने वाली चुनाव संबंधी नियुक्तियों को अपनाकर या इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर कोई हल निकाला जा सकता है।
अपनी 255वीं रिपोर्ट में भारतीय विधि आयोग ने इस प्रकार की नियुक्तियों के लिए एक कॉलेजियम की स्थापना की रिफारिश की थी, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सर्वोच्च न्यायाधीश शामिल हों। यह सिफारिश कभी स्वीकार नहीं की गई।
  • कॉलेजियम की सिफारिश हेतु 2018 में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। तब मामले को एक संविधान पीठ को सौंप दिया गया था।
  • चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के अलावा उन्हें पदच्चुत करने की प्रक्रिया में भी सुधार करने की आवश्यकता है। केवल मुख्य चुनाव आयुक्त को ही महाभियोग का कवच प्राप्त है। बाकी के दो चुनाव आयुक्तों को दिन में दस बार मुख्य चुनाव आयुक्त की बात को अस्वीकार करने का अधिकार है। इन दोनों आयुक्तों पर सरकारी दबाव बना रहता है। इनके माध्यम से सरकार, मुख्य चुनाव आयुक्त के मत को पराजित कर सकती है। अतः उचित तो यही है कि दोनों चुनाव आयुक्तों को भी मुख्य चुनाव आयुक्त की तरह का ही संरक्षण प्रदान किया जाए।
  • चुनाव आयोग जब राजनीति दलों द्वारा (विशेष रूप से सत्तसीन दल) किए जाने वाले उल्लंघन को रोक पाने में असफल होता है, तो उसकी छवि को बहुत नुकसान पहुँचता है। जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के अंतर्गत धारा 29ए में इसे पंजीकरण का अधिकार प्राप्त है। परन्तु नियमों के उल्लंघन की चरम सीमा तक जाने पर भी राजनैतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने का अधिकार नहीं है। चुनाव आयोग, इस प्रकार के अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है।
1998 में ही चुनाव आयोग में सुधारों की सिफारिश की गई थी। चुनाव आयुक्त ने अपने अधिकार बढ़ाए जाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को एक एफीडेविट भी दिया था।
राजनीतिक दल, चुनाव आयोग की कमजोरियों का लाभ उठाते हुए लगातार चुनाव आचार संहिता को तोड़े जा रहे हैं। चुनाव तो प्रजातंत्र का आधार है, और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ही प्रजातांत्रिक वैधता का केन्द्र है। चुनाव के संरक्षक को आज स्वयं की स्वायत्तता की रक्षा की आवश्यकता आन पड़ी है। इस पर तुरन्त ही कोई कदम उठाया जाना चाहिए।
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Milan Tomic

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