समान नागरिक संहिता पर बहस (Debate on Uniform Civil Code)

संदर्भ

हाल ही में विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि मौजूदा वक्त में समान नागरिक संहिता यानी Uniform Civil Code न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय। आयोग का मानना है कि समान नागरिक संहिता समस्या का हल नहीं है बल्कि, सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की ज़रूरत है ताकि उनके पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें।

प्रमुख मुद्दा

  • गौरतलब है कि हाल के वर्षों में समान नागरिक संहिता पर सियासी और समाजी दोनों ही माहौल गर्म रहा है।
  • एक ओर जहाँ देश की बहुसंख्यक आबादी समान नागरिक संहिता को लागू करने की पूरजोर मांग उठाती रही है, वहीं अल्पसंख्यक वर्ग इसका विरोध करता रहा है।
  • इसी के मद्देनजर जहाँ इस मुद्दे पर हर चुनावी साल में राजनीति होती रही है, वहीं चुनाव बाद इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल देने की रिवायत चल पड़ी है।
  • इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं को समान अधिकार मिलना रेगिस्तान में नखलिस्तान से कम नहीं होगा लेकिन, इस संहिता को लागू करने में कदम-कदम पर आने वाली चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं।
  • एक तरफ जहाँ अल्पसंख्यक समुदाय नागरिक संहिता को अनुच्छेद 25 का हनन मानते हैं, वहीं इसके झंडाबरदार समान नागरिक संहिता की कमी को अनुच्छेद 14 का अपमान बता रहे हैं।
  • लिहाजा, सवाल उठता है कि क्या सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता किया जा सकता है कि समानता के प्रति हमारा आग्रह क्षेत्रीय अखंडता के लिए ही खतरा बन जाए? क्या एक एकीकृत राष्ट्र को ‘समानता की इतनी जरूरत है कि हम विविधता की खूबसूरती की परवाह ही न करें?
  • दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि अगर हम सदियों से अनेकता में एकता का नारा लगाते आ रहे हैं तो, कानून में भी एकरुपता से आपत्ति क्यों? क्या एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून नहीं होना चाहिए ?
  • सवाल है कि अगर अब तक समान नागरिक संहिता को लागू करने की कोशिश संजीदगी से नहीं हुई है तो, इसके पीछे अल्पसंख्यकों की चिंता तो नहीं है? या फिर यह यकीन कर लिया जाए कि हमारे सियासतदां भी समझते हैं कि धर्म और कानून के घालमेल से इस बहुल संस्कृति वाले देश में बेहतर संदेश नहीं जाएगा? ऐसे में वक्त का तकाजा है कि देश  की  जनता को इन सवालों के जवाब मिले।

समान नागरिक संहिता क्या है?

  • सबसे पहले आपको बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा
  • समान नागरिक संहिता में देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होता है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।
  • समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक तथा जमीन-जायदाद के बँटवारे आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होता है। अभी देश में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। संपत्ति, विवाह और तलाक के नियम हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-अलग हैं।
  • इस समय देश में कई धर्म के लोग विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।

विधि आयोग द्वारा कही बातें -

  • विधि आयोग ने जहाँ 2016 में समान नागरिक संहिता से जुड़े कुछ सवाल लोगों से पूछे थे, वहीं पिछले वर्ष देश के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों द्वारा विधि आयोग को एक मसौदा भी सौंपा गया था।
  • इसमें इस बात की चर्चा थी कि निजी मामलों से जुड़े मुद्दों पर बनाए जाने वाले नियम ऐसे हों जो वैश्विक रूप से स्वीकृत हों और मानवाधिकारों का उल्लंघन न करते हों।
  • लिहाजा, विधि आयोग ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि जरूरी नहीं कि एक एकीकृत राष्ट्र को समानता की आवश्यकता हो बल्कि, हमें मानवाधिकारों पर निर्विवाद तर्कों के साथ अपने मतभेदों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिये।
  • आयोग का मानना है कि निजी कानूनों में फर्क किसी भेदभाव की नहीं बल्कि, एक मजबूत लोकतंत्र की पहचान है।
  • धर्मनिरपेक्षता शब्द का अर्थ केवल तभी चरितार्थ होता है जब यह किसी भी प्रकार के अंतर की अभिव्यक्ति को आश्वस्त करता है। आयोग ने साफ कहा है कि धार्मिक और क्षेत्रीय दोनों ही विविधता को बहुमत के शोरगुल में कम नहीं किया जा सकता है।
  • आयोग ने सुझाव दिया है कि समान नागरिक संहिता को लागू करने के बजाय सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की जरूरत है।
  • कानूनों को संहिताबद्ध करने पर व्यक्ति कुछ हद तक दुनिया के उन सिद्धांतों तक पहुँच सकता है जो समान संहिता की बजाय समानता को लागू करने को प्राथमिकता देता है।
  • लैंगिक समानता के मद्देनजर आयोग ने सुझाव दिया है कि लड़कों एवं लड़कियों की शादी के लिए 18 वर्ष की आयु को न्यूनतम मानक के रूप तय किया जाए ताकि वे बराबरी की उम्र में शादी कर सकें।

समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में तर्क

  • संविधान निर्माण के बाद से ही समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग उठती रही है। लेकिन, जितनी बार मांग उठी है उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ है। समान नागरिक संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि भारतीय संविधान में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं।
  • अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव करने की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार लोगों को दिया गया है।
  • लेकिन, महिलाओं के मामले में इन अधिकारों का लगातार हनन होता रहा है। बात चाहे तीन तलाक की हो, मंदिर में प्रवेश को लेकर हो, शादी-विवाह की हो या महिलाओं की आजादी को लेकर हो, कई मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है।
  • इससे न केवल लैंगिक समानता को खतरा है बल्कि, सामाजिक समानता भी सवालों के घेरे में है। जाहिर है, ये सारी प्रणालियाँ संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। लिहाजा, समान नागरिक संहिता के झंडाबरदार इसे संविधान का उल्लंघन बता रहे हैं।
  • दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज समान नागरिक संहिता का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा जाता है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। इसलिये, सभी पर समान कानून थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा।
  • मुस्लिमों के मुताबिक उनके निजी कानून उनकी धार्मिक आस्था पर आधारित हैं इसलिये समान नागरिक संहिता लागू कर उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए।
  • मुस्लिम विद्वानों के मुताबिक शरिया कानून 1400 साल पुराना है, क्योंकि यह कानून कुरान और पैगम्बर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित है।
  • लिहाजा, यह उनकी आस्था का विषय है। मुस्लिमों की चिंता है कि 6 दशक पहले उन्हें मिली धार्मिक आजादी धीरे-धीरे उनसे छीनने की कोशिश की जा रही है। यही कारण है कि यह रस्साकशी कई दशकों से चल रही है।                                                                                                         

समान नागरिक संहिता लागू करने में आने वाली चुनौतियाँ

  • दरअसल, समान नागरिक संहिता को लागू करने की पूरजोर मांग उठने के बाद भी इसे अब तक लागू नहीं किया जा सका है। कई मौके ऐसे आए जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक संहिता लागू न करने पर नाखुशी जताई है।
  • 1985 में शाह बानो केस और 1995 में सरला मुदगल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी से भी इस मुद्दे ने जोर पकड़ा था, जबकि पिछले वर्ष ही तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी इस मुद्दे को हवा मिली।
  • लेकिन, सवाल है कि इस मसले पर अब तक कोई ठोस पहल क्यों नहीं हो सकी है? दरअसल, भारत का एक बहुल संस्कृति वाला देश होना इस रास्ते में बड़ी चुनौती है।
  • हिंदू धर्म में विवाह को जहाँ एक संस्कार माना जाता है, वहीं इस्लाम में इसे एक Contract माना जाता है। ईसाइयों और पारसियों के रीति- रिवाज भी अलग-अलग हैं।
  • लिहाजा, व्यापक सांस्कृतिक विविधता के कारण निजी मामलों में एक समान राय बनाना व्यावहारिक रूप से बेहद मुश्किल है।
  • दूसरी समस्या है कि अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों की एक बड़ी आबादी समान नागरिक संहिता को उनकी धार्मिक आजादी का उल्लंघन मानती है।
  • जाहिर है, एक बड़ी आबादी की मांग को नकार कर कोई कानून अमल में नहीं लाया जा सकता है। तीसरी समस्या यह है कि अगर समान नागरिक संहिता को लागू करने का फैसला ले भी लिया जाता है तो इसे समग्र रूप देना कतई आसान नहीं होगा।
  • इसके लिये  कोर्ट को निजी मामलों से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार करना होगा। विवाह, तलाक, पुनर्विवाह आदि जैसे मसलों पर किसी मजहब की भावनाओं को ठेस पहुँचाए बिना कानून बनाना आसान नहीं होगा।
  • सिर्फ शरिया कानून, 1937 ही नहीं बल्कि, Hindu Marriage Act, 1955, Christian Marriage Act, 1872, Parsi Marriage and Divorce Act, 1936 में भी सुधार की आवश्यकता है।
  • मुश्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है। मुश्किल यह भी है कि देश के अलग-अलग हिस्से में एक ही मजहब के लोगों के रीति रिवाज अलग-अलग हैं।
  • मौजूदा वक्त में गोवा अकेला राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। जाहिर है, इसके लिए काफी प्रयास किए गए होंगे। इसलिए यह कहना गलक नहीं होगा कि दूसरे राज्यों में भी अगर कोशिश की जाती है तो, इसे लागू करना मुमकिन हो सकता है।
  • दूसरी ओर वोटबैंक की राजनीति भी इस मुद्दे पर संजीदगी से पहल न होने की एक बड़ी वजह है।
  • एक दल जहाँ समान नागरिक संहिता को अपना एजेंडा बताता रहा है, वहीं दूसरी पार्टियाँ इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ सरकार की राजनीति बताती रही हैं।
  • जाहिर है, एक दल को अगर वोटबैंक के खिसक जाने का डर है तो, दूसरे को वोटबैंक में सेंध लगाने की फिक्र है। दरअसल, सियासी दलों का यह डर पुराना है।
  • जब 1948 में हिन्दू कोड बिल संविधान सभा में लाया गया, तब देश भर में इस बिल का जबरदस्त विरोध हुआ था। बिल को हिन्दू संस्कृति तथा धर्म पर हमला करार दिया गया था।
  • सरकार इस कदर दबाव में आ गई कि तत्कालीन कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर को पद से इस्तीफा देना पड़ा। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहता।

आगे की राह

  • दरअसल, भारतीय संविधान भारत में विधि के शासन की स्थापना की वकालत करता है। ऐसे में आपराधिक मामलों में जब सभी समुदाय के लिए एक कानून का पालन होता है, तब सिविल मामलों में अलग कानून पर सवाल उठना लाजिमी है।
  • समझना होगा कि निजी कानूनों में सुधार के अभाव में न तो महिलाओं की हालत बेहतर हो पा रही है और न ही उन्हें सम्मानपूर्वक जीने का अवसर मिल पा रहा है।
  • दरअसल, सबसे बड़ी आजादी तो उन मुस्लिम महिलाओं को मिल सकेगी जो बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का विरोध करती रहीं हैं।
  • इससे न केवल समानता जैसे संवैधानिक अधिकार को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा बल्कि, समाज-सुधार जैसी पहलें भी कामयाब हो सकेंगी।
  • समझना होगा कि जब हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होगा तो, देश के सियासी दल वोट बैंक वाली सियासत भी नहीं कर सकेंगे और भावनाओं को भड़का कर वोट मांगने की रिवायत पर भी लगाम लग सकेगा।
  • लेकिन, दूसरी तरफ विधि आयोग की सलाह और अल्पसंख्यकों की चिंता पर भी हमें गौर करना होगा। जब संविधान में जिक्र होने के बावजूद विधि आयोग जैसी संस्था समान नागरिक संहिता को जरूरी नहीं मानती है तो, यकीनन इसमें देश की विविधता को महफूज करने की नीयत होगी। आयोग ने अगर समान नागरिक संहिता लाने से पहले निजी कानूनों में सुधार की बात कही है तो, यकीनन आयोग चाहता है कि कड़ी दर कड़ी कानून बना कर सुधार की ओर बढ़ा जाए।
  • समझना होगा कि मुस्लिमों के पर्सनल लॉ का 1400 साल पुराना होने का अर्थ है- आस्था का लंबा इतिहास होना। जाहिर है, इसे एक झटके में समान नागरिक संहिता लागू कर खत्म नहीं किया जा सकता। अमूमन भारत के सभी निजी कानून आस्था पर आधारित हैं और उनमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक तब्दीली की आवाज धर्म विशेष के अंदर से नहीं आ जाती है।
  • हमें समझना होगा कि अगर राजा राममोहन राय सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठा सके और उसका उन्मूलन करने में कामयाब हो सके तो, सिर्फ इसलिये कि उन्हें अपने धर्म के भीतर की कुरीतियों की फिक्र थी।
  • लिहाजा, धर्म के रहनुमाओं को ईमानदारी से पहल करने की जरूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि भारत जैसे देश में संस्कृति की बहुलता होने से न केवल निजी कानूनों में बल्कि रहन-सहन से लेकर खान-पान तक में विविधता देखी जाती है और यही इस देश की खूबसूरती भी है। ऐसे में जरूरी है कि देश को समान कानून में पिरोने की पहल अधिकतम सर्वसम्मति की राह अपना कर की जाए। ऐसी कोशिशों से बचने की जरूरत है जो समाज को ध्रुवीकरण की राह पर ले जाएँ और सामाजिक सौहार्द्र के लिए चुनौती पैदा कर दें।
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Milan Tomic

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