सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था में उम्मीद की एक किरण

भारत के पिछड़ेपन का एक बहुत बड़ा कारण शिक्षा है। स्वतंत्रता से पूर्व, प्रतिभाशाली लोग सरकारी स्कूलों की देन हुआ करते थे। आज उन स्कूलों की स्थिति इतनी खराब है कि निर्धन माता-पिता भी सरकारी स्कूलों की निःशुल्क शिक्षा के स्थान पर महंगे प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना पसंद करते हैं।
2012 के प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट की 73 देशों की प्रतिस्पर्धा में भारत का स्थान बहुत ही पीछे रहा है। इस प्रतियोगिता में तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश जैसे दो प्रमुख राज्यों ने भाग लिया था। भारत ने असेसमेंट की मूल्यांकन प्रणाली को ही गलत ठहराते हुए इसमें भाग लेना बंद कर दिया। वहीं वियतनाम ने इस मूल्यांकन पद्धति का स्वागत करते हुए अपनी कमजोरियों को दूर किया, और आज वह इस प्रतिस्पर्धा में अपना स्थान ऊपर ले आया है। भारत ने भी 2021 की इस प्रतिस्पर्धा में भाग लेने का निश्चय किया है।
भारतीय शिक्षा पद्धति की सबसे बड़ी कमी इसकी रटंत प्रक्रिया है। यहाँ लिखे-लिखाए उत्तरों को अच्छी तरह से रटना सिखाया जाता है। जिज्ञासावश शिक्षक से प्रश्न करने को महत्व नहीं दिया जाता है। नए प्रयोग, विचार और वाद-विवाद का कोई स्थान नहीं है। सरकार भी कक्षाओं, शौचालयों और मध्यान्ह भोजन योजनाओं पर काफी ध्यान दे रही है। लेकिन सीखने के परिणामों पर कोई ध्यान नहीं है।
टी.एस.इलियट ने कहा था, ‘‘ज्ञान के बीच हमने विवेक को कहाँ खो दिया है? सूचनाओं के बीच ज्ञान को कहाँ खो दिया है ? भारतीय स्कूली शिक्षा ज्ञान की जगह सूचना को महत्व देती है। इसमें विवेक का कोई स्थान नहीं है।
हमारी शिक्षा प्रणाली को सुधारने का रास्ता प्रयोगों से होकर ही जाता है। आंध्रप्रदेश के एक छोटे से गांव में ‘कैम्पस क्रिएटीविटी लैब’ का निर्माण किया गया है, जिसके माध्यम से बच्चों को ‘क्यों’ जैसे प्रश्नचिन्ह लगाने का अवसर दिया गया है। इससे बच्चों में निरीक्षण और अवलोकन करने की जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है, और उनका आत्मविश्वास बढ़ रहा है।
इस विद्यालय को ‘आह, आहा और हा-हा’ जैसी तीन तकनीकों पर चलाया जा रहा है। पहले स्तर का संबंध छोटे-छोटे प्रयोगों के माध्यम से आश्चर्यचकित, खुश, जिज्ञासु और उत्साहवर्धक होने से है। दूसरा स्तर, प्रोजेक्ट और वाद-विवाद के माध्यम से प्रयोग और खोज करने के लिए प्रोत्साहित करने से संबंधित है। ‘हा हा’ को बच्चों के अंदर के भय और संकोच को प्रसन्नता और हंसी-माजक में बदलने के लिए रखा गया है।
इस विद्यालय के बच्चों ने व्यावसायिक जीवन में आने वाली समस्याओं से रूबरू होकर नए-नए साधन और तंत्र विकसित किए हैं। यही अन्वेषण और सीखने की कला भारत में भी सिलीकन वैली बना सकती है।
आंध्रप्रदेश की इस संस्था ने दो सौ मोबाइल लैब और 70 विज्ञान केन्द्र बनाए हैं। 540 गांवों में इसकी रात्रि कक्षाएं भी चलती हैं। बच्चों में नेतृत्व की क्षमता को पहचानते हुए इसने 14,000 युवाओं को शिक्षकों की तरह प्रशिक्षित कर दिया गया है। इससे बच्चों में नेतृत्व क्षमता का विकास जल्दी होता है, और सीखने-पढ़ने की प्रक्रिया मजेदार हो जाती है।
संस्था की पद्धति को देखते हुए ब्रिटेन के कुछ लोग इसे सीखने आए। इस पद्धति को चलाने में इंफोसिस और अन्य निजी क्षेत्र की कंपनियों का योगदान है।
संस्था के माध्यम से एक करोड़ बच्चों और लगभग 2,50,000 शिक्षकों को लाभ मिल चुका है। इस प्रकार की संस्थाएं हमारी सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था के अंधकार में सूरज की एक किरण की तरह अंतरराष्ट्रीय जगत में हमारी साख बचाए हुए हैं, और प्रकाश की उम्मीद जगाए हुए हैं। इनकी पहुँच अभी सीमित है, लेकिन इनसे मार्गदर्शन लेकिर शिक्षा-व्यवस्था में सुधार करने की संभावनाएं असीमित हैं।
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Milan Tomic

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