निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव

देश के आम चुनावों में धन की बर्बादी होना कोई नई बात नहीं है। 2019 के चुनावों में भी बीत चुके चुनावी चरणों में धन के माध्यम से अपना वर्चस्व बनाने की सभी सीमाएं तोड़ी गई हैं।
मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए बहाई गई धनराशि, अनेक पक्षों पर विचार करने को मजबूर करती है।
  1. चुनाव में खर्च होने वाली धनराशि तो नाममात्र के खर्च का ही ब्योरा देती है। इसके अलावा शराब, नशीले पदार्थों आदि अनैतिक साधनों से बांटी जाने वाली वस्तुओं पर होने वाले खर्च की तो कोई गिनती ही नहीं है।
  2. चुनाव आयोग के नियमों और कड़ाई के चलते राजनैतिक दलों ने निर्वाचन क्षेत्रों में खर्च होने वाली धनराशि और सामग्री को चुनाव आचार संहिता के लागू होने के बहुत पहले ही उनके गंतव्य तक पहुँचा दिया था
लोकसभा उम्मीदवार के लिए चुनाव में 70 लाख रुपये के खर्च की सीमा का क्या यह मजाक बनाना नहीं है?
जब नियमावली के प्रत्येक नियम को तोड़ा जा रहा हो, जब राजनैतिक पार्टियों के चंदे और खर्च की कोई पारदर्शिता न हो, जब प्रत्येक उम्मीदवार निर्धारित खर्च सीमा से अधिक खर्च कर रहा हो, तब लगता है कि क्या हमें नियमावली में सुधार की विवेचना करनी चाहिए?
चुनावों पर निगरानी रखने के लिए चुनाव आयोग लगभग 2000 केन्द्रीय पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करता है। इन्हें केन्द्र व राज्य सरकारों के अनेक विभागों और मंत्रालयों से इनका सामान्य कामकाज छुड़वाकर विशेष ड्यूटी पर बुलाया जाता है। अनेक सतर्कता दल बनाए जाते हैं, जो एक भी खबर मिलने पर तुरन्त कार्यवाही में लग जाते हैं। यह उनकी चुस्ती-फुर्ती और सतर्कता का ही परिणाम है कि इन चुनावों के दौरान इतनी बड़ी तादाद में अनैतिक और गैरकानूनी सामग्री पकड़ी गई है।
इन सबके बाद यह स्पष्ट हो चुका है कि राजनैतिक दलों का वित्त पोषण करने के लिए जिन चुनावी बांडों को वैध और पारदर्शी समझा जाता है, वे उल्टा ही प्रभाव डाल रहे हैं। उनकी आड़ में बेहिसाब चंदा दिया जा रहा है। न्यायालय में दिए एक एफिडेविट में स्वयं चुनाव आयोग ने यह स्वीकारा है। उच्चतम न्यायालय ने भी इस सत्य को स्वीकार किया है।
इन चुनावों के सम्पन्न होने के पश्चात् चुनाव आयोग को चाहिए कि वह सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की एक बैठक करे। इसमें देश के संविधान विशेषज्ञ और कानूनवेत्ता भी शामिल हों। इस प्रकार निष्पक्ष चुनावों की दिशा में नियमावली की पुनर्विवेचना की जाए।
चुनावों के साथ दूसरी समस्या उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड की है। 16वीं लोकसभा के लगभग 30 प्रतिशत सदस्यों ने अपने विरुद्ध आपराधिक मामलों का खुलासा किया था। 2002-2003 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए दो आदेशों के बाद से उम्मीदवारों को अपनी सम्पत्ति और शैक्षणिक योग्यता की घोषणा करना अनिवार्य किया गया था। ये आदेश तब आए थे, जब प्रजातांत्रिक सुधार संगठन ने लंबी लड़ाई लड़ी थी। दुर्भाग्यवश 2019 के आम चुनावों के पहले चरण में 12 प्रतिशत और दूसरे चरण में 11 प्रतिशत उम्मीदवारों ने अपने जघन्य अपराधों में लिप्त होने की घोषणा की।
अपने अधिकारों का प्रयोग करे चुनाव आयोग
इन चुनावों में आचार संहिता के उल्लंघन और चुनाव आयोग की उससे निपटने की शक्ति, सबसे अधिक चर्चा का विषय रही है। इस मामले में 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त की याद ताजा हो आती है, जिन्होंने संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग को दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने की बात कही थी। वास्तव में, चुनाव आयोग के पास इतनी अपार शक्ति है कि चुनाव-प्रणाली में सरकार उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जरूरत है, तो इस बात की कि इन शक्तियों का उचित, वैध और समान रूप से उपयोग किया जाए।
इन विसंगतियों के साथ ही अगर 2019 के चुनावों के सकारात्मक पक्ष को देखा जाए, तो दो दलों, तृणमूल काँग्रेस और बीजू जनता दल, ने राजनीति में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की अवधारणा को सत्य कर दिखाया है। यह महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक अहम् कदम है।
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Milan Tomic

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