मुख्य बिंदु:
पोलैंड में होने वाले 24 वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन की शुरुआत हो चुकी है। ये सम्मलेन 2 दिसंबर से शुरू हुआ है जोकि अगली 14 तारीख तक जारी रहेगा।
इस सम्मलेन का मुख्य मकसद 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौतों को लेकर उभरे राजनैतिक मतभेदों को दूर करना तथा इस सहमति के नियमों को ज़्यादा मज़बूती प्रदान करना है।
ये सम्मेलन पोलैंड के शहर katowice में आयोजित किया जा रहा है जहां पूरी दुनिया के लगभग 200 देश हिस्सा ले रहे है। पोलैंड में हो रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मलेन 2018 की पोलैंड तीसरी बार मेजबानी कर रहा है। इससे आलावा भी पोलैंड 2008 और 2013 में हुए सम्मलेन की मेजबानी कर चुका है।
भारत की ओर से इस सम्मलेन का प्रतिनिधित्व पर्यावरण मंत्री द्वारा किया जायेगा। जहां जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटे के लिए विकसित देशों से आर्थिक सहयोग और ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की बात की जाएगी। इसके साथ ही बदलते क्लाइमेट चेंज के कारण होने वाली समस्यांओ से निपटने जैसे मुद्दों पर भी चर्चा की जाएगी।
जलवायु परिवर्तन को लेकर लम्बे वक़्त से पूरा विश्व परेशान है। तेज़ी से बदलते मौसम, अकाल बाढ़, सूखा, और बेमौसम बारिश जैसी हैरान करने वाली घटनाये जलवायु परिवर्तन के ही कारण होती है। दरअसल पिछले कुछ सालों में ग्रीन हॉउस गैसों का उत्सर्जन काफी तेज़ी से बढ़ा है जिसके कारण हमारा इको सिस्टम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
ग्रीन हाउस एक प्राकृतिक घटना है जोकि सूर्य से आने वाली ऊर्जा का कुछ भाग मिटटी पेड़ पौधों और ग्रीन हाउस के अन्य स्रोतों द्वारा ग्रहण करती है उसे ही ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट कहते हैं। ये प्रक्रिया पृथ्वी के लिए बहुत ज़रूरी होती है, जिसके माधयम से ही पृथ्वी पर मानव जीवन संभव है। लेकिन कुछ वक़्त से ग्रीन हाउस गैसों में शामिल कार्बन डाईऑक्साइड, मेथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की मात्रा में काफी इजाफा हुआ है। जिसके कारण पृथ्वी का तापमान तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।
2015 में हुए पेरिस समझते के दौरान इसी समस्या को लेकर बात हुई थी। जिसमें वैश्विक तापमान की वृद्धिदर को 2 डिग्री सेल्सियस से भी कम रखने
पर करीब 200 देशों ने सहमति जताई थी। इस सम्मलेन के दौरान ही सभी देशों ने बिजली उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले कोयले का भी कम से कम प्रयोग कर 2030 तक इसे पूरी तरह से समाप्त कर देने का भरोसा जताया था।
लेकिन पिछले ही साल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पेरिस संधि को अमेरिका के हितों के खिलाफ बताते हुए इसे छोड़ दिया। जिसके बाद वैश्विक स्तर पर अमेरिका की काफी आलोचना की गई। अमेरिका के इस फैसले के बाद कई और राष्ट्र भी इसे अपने हितों के खिलाफ बता रहे हैं। और वो भी इस संधि से खुद को बाहर कर सकते हैं।
पेरसि जलवायु समझौते का विवाद विकसित और विकाशील देशों में ज़्यदा है। जहां अमेरिका जैसे विकसित देश विकाशशील देशों को अधिक कार्बन उत्सर्जन की इज़ाज़त देने और आर्थिक रूप से मदद को लेकर नारज हैं।
हालांकि सालों पहले इन्ही विकसित देशों ने अनियमित तरीके से कोयला और पेट्रोलियम जैसे हानिकारक जीवाश्म ईंधनों का भरी मटर में इस्तेमाल किया था जिसके कारण जलवायु परिवर्तन की समस्या विकराल हुई है।
मौजूदा वक़्त में हमारे वातावरण को हानि पहुंचाने वाली गैसों मे CO2 - 77 से 80% , मेथेन - 14 और नाइट्रस ऑक्साइड की 8 फीसदी मौजूदगी है। पर्यावरण विदों का मानना है की यदि इन ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में कमी नहीं की गई तो आने वाले समय में पृथ्वी पर मौजूद विशाल ग्लेशियर तेज़ी से पिघल कर समुद्री जल स्तर को बढ़ा सकते हैं। जिससे मानव जीवन के संकट और गहरे हो जायेंगे।
इस समय सबसे ज़्यदा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में चीन 27 प्रतिशत के साथ सबसे आगे है जबकि पेरिस जलवायु संधि से खुद को अलग करने वाला राष्ट्र अमेरिका 16% के साथ दूसरे नंबर पर बना हुआ है। भारत का कार्बन उत्सर्जन में कुल 6.6% योगदान हैं जिसे कम करने के लिए राष्ट्रीय सौर्य ऊर्जा मिशन, ग्रीन इंडिया मिशन और जल संरक्षण जैसे मिशनों पर भारत जोर दे रहा है।
दरअसल मौजूदा वक़्त में जलवायु परिवर्तन और उससे उत्पन्न संकट विश्व के सामने सबसे गंभीर समस्या है। जिससे निपटने के लिए सामूहिक प्रयास और उन्हें लागू करने की सख्ती दिखानी चाहिए ताकि जलवायु परिवर्तन की नीतियों को प्रभावी बना कर इस संकट का हल निकाला जा सके।
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