पेड न्यूज (paid news) से बढ़ता चुनावी कदाचार

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में चुनाव आयोग ने चुनावों के दौरान पेड न्यूज के प्रयोग के बारे में सुप्रीम कोर्ट के सामने अपनी राय जाहिर की है। चुनाव आयोग ने कहा है कि चुनाव में उम्मीदवार की उपलब्धियों की सराहना करते हुए विज्ञापन को बार-बार प्रकाशित करना पेड न्यूज की श्रेणी में आता है। इस तरह के प्रचारों को अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में अनुमति नहीं दी जा सकती है। दरअसल, चुनाव आयोग ने दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है जिसमें कोर्ट ने मध्यप्रदेश के भाजपा नेता नरोत्तम मिश्र को आयोग द्वारा अयोग्य ठहराने के फैसले को खारिज कर दिया था।
  • आरोप था कि 2008 में मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान में 42 ऐसे समाचार या लेख छापे गए थे जो सीधे तौर पर नरोत्तम मिश्र को राजनीतिक फायदा पहुँचाने वाले थे। इसके तहत एक ही खबर को देश के तीन प्रमुख अखबारों में छपवाने का आरोप था। लिहाजा, निर्वाचन आयोग ने नरोत्तम मिश्र पर तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दिया था।
  • लेकिन, दिल्ली हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को खारिज कर दिया। अब जबकि चुनाव आयोग ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, तब यह जरूरी है कि पेड न्यूज को रोकने के लिए कोई पुख्ता इंतजाम किया जाए। सवाल है कि जब पेड न्यूज पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया के लिए एक रुकावट की तरह है, तब क्या इसे चुनावी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? गौर करें तो, पेड न्यूज का मसला केवल नेताओं या राजनीतिक दलों तक ही सीमित नहीं है। बल्कि, इसे अंजाम देने में इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया की भी भूमिका है।
  • लिहाजा, यह सवाल होना ही चाहिए कि क्या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब सत्य को खोजने की बजाय व्यावसायिक हितों से निर्देश प्राप्त कर रहा है? सवाल है कि क्या आज का मीडिया लोकतंत्र के प्रति अपने फर्ज भूल गया है? इसमें कोई शक नहीं कि पेड न्यूज राजनीति और मीडिया के गठजोड़ का नतीजा है और यह गठजोड़ लोकतंत्र की गुणवत्ता को कम कर रहा है। फिर बात जब चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया को शक्ति देने की होती है तब हमारी सरकारों द्वारा इसे अनसुना कर देना उनकी मंशा पर सवाल खड़े करता है। आइए इन पहलुओं पर विचार करते हैं।

पेड न्यूज से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण पहलु

  • चुनाव आयोग के मुताबिक किसी उम्मीदवार के पक्ष में इस प्रकार चुनाव प्रचार करना जिससे कि वह प्रचार भी समाचार अथवा आलेख जैसा प्रतीत हो, पेड न्यूज कहलाता है। प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया का मानना है कि ऐसी खबरें जो प्रिंट या इलेक्ट्रॅानिक मीडिया में नकद या किसी दूसरे फायदे के बदले में प्रसारित की जा रही हों, पेड न्यूज कहलाती हैं।
  • हालाँकि, भारत में मीडिया पर भ्रष्टाचार का आरोप बेहद पुराना है। लेकिन, हाल के वर्षों में यह अधिक संस्थागत एवं संगठित हो गया है। समाचारपत्रों और टी.वी. चैनलों पर किसी विशिष्ट व्यक्ति, कॉरपोरेट इकाई, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों आदि के पक्ष में धन लेकर सूचनाएँ प्रकाशित या प्रसारित करने के आरोप लगते रहे हैं। इस मामले में 2010 का बहुचर्चित नीरा राडिया टेप मामला काफी चर्चा में रहा था। इस मामले में खुलासा हुआ था कि धन के बल पर किस तरह कुछ अखबारों और समाचार चैनलों को मनपसंद खबरें चलाने और लेख छापने के लिए निर्देश दिए जा रहे थे।
  • इसी तरह हाल ही में कोबरा पोस्ट नामक एक वेब पोर्टल ने कई मीडिया हाउसेज के ऊपर एक स्टिंग ऑपरेशन किया जिसमें पेड न्यूज पर कई खुलासे हुए थे। इसमें पता चला था कि कैसे धन के बदले में मीडिया हाउस किसी नेता के पक्ष में या किसी के खिलाफ खबरें चलाने के लिए तैयार हो जाती हैं। वैसे यह साबित करना बेहद मुश्किल होता है कि किसी चैनल पर दिखाई गई विशेष खबर या समाचारपत्र में छपी न्यूज पेड है या नहीं। यही कारण है कि पेड न्यूज पर अभी तक शिकंजा कसने में कामयाबी नहीं मिल पाई है।
  • हालाँकि, पेड न्यूज के मामले में किसी नेता को अयोग्य घोषित करने का मामला पहले भी सामने आ चुका है। वर्ष 2011 में उत्तर प्रदेश के विधायक रहे उमलेश यादव का मामला सामने आया था। पेड न्यूज के प्रकाशन के लिए खर्च की गई धनराशि की जानकारी छिपाने के आधार पर उन्हें अयोग्य ठहराया गया था। गौरतलब है कि उम्मीदवारों को अपने-अपने चुनावी खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग के सामने रखना पड़ता है। खर्च की भी एक सीमा तय की गई है। लेकिन जब उम्मीदवारों द्वारा खर्च सीमाओं को दरकिनार कर अखबारों में विज्ञापन दिया जाता है तब, चुनाव आयोग द्वारा इसे भी गंभीर चुनावी कदाचार माना जाता है। जाहिर है, पेड न्यूज चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने का एक बड़ा कारक है।

ऐसे में सवाल है कि पेड न्यूज से किस प्रकार की समस्या पैदा होती है?

  • दरअसल, किसी भी पेड न्यूज का मकसद वोटर्स को गुमराह करना होता है। इससे पाठक को गलत सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जिससे वह भ्रमित होता है। लिहाजा, किसी विशेष राजनीतिक दल या उम्मीदवार के पक्ष में माहौल बनता है और चुनाव परिणाम खासा प्रभावित होता है। जाहिर है, इससे पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया की उम्मीदों को झटका लगता है और लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट आती है।
  • दरअसल, पेड न्यूज का एक दूसरा स्वरूप भी है। मसलन- अगर कोई उम्मीदवार एक ऐसा विज्ञापन देता है जो वोटर्स को गुमराह करने वाला नहीं होता है। लेकिन, अगर वह उस विज्ञापन के खर्च का ब्यौरा चुनाव आयोग को नहीं देता है तो वह पेड न्यूज की श्रेणी में आता है। दरअसल ऐसा करना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत लागू चुनाव नियम संहिता,1961 का उल्लंघन है। इसी तरह, संबंधित समाचारपत्र तथा न्यूज चैनल भी चुनाव उम्मीदवार से मिली आय को अपने बैलेंस शीट में नहीं दर्शाते हैं। इसलिए, वे कंपनी अधिनियम और आयकर अधिनियम दोनों का उल्लंघन करते हैं।
  • दूसरी तरफ, मीडिया द्वारा पेड न्यूज को बढ़ावा देने से लोकतंत्र विरोधी गतविधियों को शह मिल रही है। हालाँकि, मीडिया लोगों के विचारों को प्रभावित करने या परिवर्तित करने में अहम भूमिका निभाता है। इसका काम न केवल देश के सामने मौजूद दिक्कतों पर सुझाव देना है। बल्कि, लोगों को शिक्षित और सूचित करना भी है ताकि लोगों में जागरूकता को बढ़ावा मिल सके। पर, हाल के वर्षों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं, जो यह बताते हैं कि मीडिया का झुकाव सच की खोज के बजाय सियासी दलों को फायदा पहुँचाने की तरफ ज्यादा हो गया है।
  • इसे लोकतंत्र की विडंबना ही कहेंगे कि जिस मीडिया को लोकतंत्र का फोर्थ पिलर कहा गया है, वह मीडिया आज पूंजीपतियों का हिमायती बनता दिख रहा है। सच तो यह है कि जैसे-जैसे मीडिया पर पूंजीपतियों का शिकंजा कसता जाता है, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज्यादा से ज्यादा जनविरोधी होता जाता है। इसलिये, आम लोगों की जिन्दगी की सही तस्वीर और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच एक फासला बढ़ता चला जाता है।
  • यह कहना गलत नहीं होगा कि जब मीडिया पूंजी की ताकत से संचालित होता है तब सिस्टम के पक्ष में ही जनमत तैयार करने की कोशिश होती है। यह भी एक सच्चाई है कि मौजूदा मीडिया सिस्टम के पक्ष में जनमत तैयार करने के साथ-साथ एक उद्योग के रूप में मुनाफा कमाने की होड़ में भी शामिल हो गया है और इस होड़ के कारण ही हमारा लोकतंत्र एक अपराधी को भी अपना प्रतिनिधि मानने को बेबस है। जाहिर है, पेड न्यूज का इस्तेमाल सच पर पर्दा डालने के एक हथियार के रूप में हो रहा है।

आगे की राह

  • दरअसल, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्राथमिकता होती है। लेकिन, ऐसा न हो पाना किसी भी सिस्टम के लिए चिंता का विषय है। गौर कीजिए कि अगर राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाना शुरू कर दें, मीडिया लोकतांत्रिक मूल्यों को भूलकर पूंजीपतियों का हिमायती बन जाए, वोटर्स ईमानदार के बजाय एक अपराधी को वोट देना शुरू कर दें तो, इस व्यवस्था का क्या होगा? यकीनन, हर तरफ अराजकता का माहौल पैदा हो जाएगा और सिस्टम पंगु हो जाएगा। जाहिर है, ऐसी स्थिति से बचने के लिए कई स्तरों पर सुधार की दरकार है।
  • 2016 में चुनाव आयोग ने देश में चुनाव सुधार के लिए कुछ सुझाव दिए थे। इन सुझावों में एक यह भी था कि निष्पक्ष चुनाव के लिए पेड न्यूज, ओपिनियन पोल, एग्जिट पोल पर बैन लगाया जाए। दरअसल, ये वो कोशिशें हैं जिनके तहत पैसे की उगाही और आचार संहिता का मजाक बनाना आम बात हो गई है। एक अध्ययन के मुताबिक ज्यादातर राजनीतिक दलों के कुल बजट का लगभग 40फीसदी मीडिया संबंधी खर्चों के लिए आवंटित होता है। लिहाजा, मीडिया और सियासी दलों दोनों पर ही शिकंजा कसना वक्त की दरकार है।
  • इसके लिये जनप्रतिनिधि कानून, 1951 की धारा 123 में संशोधन करके पेड न्यूज के लिए धन के आदान-प्रदान को चुनावी कदाचार घोषित किया जाना चाहिए। हालाँकि, अनुच्छेद 19 ए मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी को सुनिश्चित करता है। लेकिन, समझना होगा कि यह आजादी एकतरफा नहीं है बल्कि, कुछ शर्तों के तहत यह आजादी दी गई है। जाहिर है, मीडिया को अपनी शक्ति के सही रूप में उपयोग करने का सबक मिलेगा और इससे समाज में आमूलचूल परिवर्तन आ सकेगा।
  • एक सुधार यह भी हो कि प्रेस परिषद अधिनियम, 1978 की धारा 15 को संशोधित किया जाए जिसमें परिषद की सामान्य शक्ति की चर्चा है। ताकि परिषद के निर्देश को सरकारी प्राधिकरणों पर भी बाध्यकारी बनाया जा सके। दरअसल, प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया को पेड न्यूज की पड़ताल करने की जिम्मेदारी तो दी गई है। लेकिन, कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। जाहिर है, यह शक्तिहीन कानून तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक इसे कार्रवाई का हक नहीं मिल जाता।
  • इसके अलावा, मीडिया संगठनों में लोकपाल की नियुक्ति और सिविल सोसाइटी द्वारा निगरानी भी इस समस्या से निपटने में मदद कर सकती है। समझना होगा कि चुनाव,जनता की पसंदगी और नापसंदगी की अभिव्यक्ति है। लेकिन, क्या यह चिंता का विषय नहीं है कि हमारी पसंद और नापसंद को सुनियोजित तरीके से नियंत्रित किया जा रहा है। इसी बारे में अमेरिका के प्रसिद्ध उपन्यासकार अप्टन सिंक्लेयर ने कहा था कि ‘देश जनमत से नियन्त्रित होता है और जनमत ज्यादातर समाचारपत्रों से ही नियन्त्रित होता है’। इससे पता चलता है कि मीडिया द्वारा वोटर्स को प्रभावित करने की परिपाटी कोई नई नहीं है।
  • हालाँकि, इसका एक उपाय यह हो सकता है कि जनसरोकारों से जुड़े मीडिया को खड़ा करने की कोशिश की जाए। मुनाफे पर टिके लूट के इस तन्त्र से लड़ने के लिए मौजूदा वक्त में एक वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने की बेहद जरूरत है। हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता के क्षेत्र में हमारे देश का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। आजादी की लड़ाई में राधामोहन गोकुल जी, प्रेमचन्द, गणेशशंकर विद्यार्थी और भगतसिंह जैसे लोगों ने अपनी लेखनी से समाज को आगे ले जाने का काम किया। आज के समय में भी पूंजी की ताकत से लैस मीडिया के बरक्स जन संसाधनों के बूते एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना बेहद जरूरी है।
  • एक दूसरे पहलू पर गौर करें तो, पेड न्यूज जैसे कदाचार की बड़ी वजह फैसलों में देरी होना भी है। नरोत्तम मिश्र का मामला 2008 के विधानसभा चुनाव का था और जब निर्वाचन आयोग ने उन्हें अयोग्य घोषित किया तब तक वह  2013 का चुनाव जीत चुके थे। इस तरह के मामलों में विलम्ब की वजह, उम्मीदवारों द्वारा अपने विरुद्ध जाँच को रोकने के लिए अदालतों की शरण में जाना है। उम्मीदवार को पता होता है कि उसे दोषी साबित करने में अदालत को सालों नहीं बल्कि, दशकों लग जाएंगे। लिहाजा, वह इस कमजोर व्यवस्था का लाभ उठाता है और चुनाव को प्रभावित करने की भरसक कोशिश करता है।
हमें समझना होगा कि नरोत्तम मिश्र या उमलेश यादव का मामला केवल एक पेड न्यूज का मामला भर नहीं है। बल्कि, सिस्टम के सामने एक चुनौती पेश करने जैसा है। यह कोशिश सिस्टम को कमजोर दिखाने जैसा है। लिहाजा यह बेहद जरूरी है कि चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया को चुनावी कदाचार रोकने के लिए और अधिकार दिए जाएँ। लेकिन, सवाल है कि जिस सिस्टम का हिस्सा समझे जाने वाले लोग ही चुनावी कदाचार को अंजाम देकर चुनाव जीतने पर आमादा हों, क्या वे ही कानून में संशोधन कर पारदर्शी चुनाव की सोच को अमलीजामा पहना सकेंगे?
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Milan Tomic

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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