2019 के आम चुनावों में भाजपा की बड़ी जीत के बाद अधिकांश उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष विद्वानों के साथ समाचार पत्रों के संपादकीय ने यह घोषणा कर दी है कि भारत के 15 करोड़ मुसलमानों का भविष्य कष्टदायक हो सकता है। भाजपा के जीते हुए 303 सांसदों में से एक भी मुस्लिम नहीं है, जबकि विरोधी दलों के 27 सांसद मुस्लिम हैं। उदारवादियों की कुछ आशंकाएं उचित हो सकती हैं, लेकिन अधिकांश निर्मूल हैं, जो भारतीय मुसलमानों को एक खोल में सिमटने को मजबूर कर सकती हैं।
पिछले 300 सालों में भारतीय मुसलमानों ने अपने अस्तित्व से जुड़े अनेक संकटों का सामना किया है। लेकिन हर बार वे हिन्दुओं के व्यापक सहयोग से इसे पार कर गए।
ऐसा बड़ा संकट 1857 में आया था, जब मुगल वंश का अंत हो रहा था। सात शताब्दियों तक चलने वाले मुस्लिम शासन (जो वास्तव में राजपूत-मुस्लिम शासन था) का अंत हुआ, और इसके अंतिम शासक बहादुरशाह जफर को क्रांति का नेता बना दिया गया। इससे मुसलमानों को अंग्रेजों का कोपभाजन बनना पड़ा। बहुत से मुसलमानों को दिल्ली में मौत के घाट उतार दिया गया। क्रांति की विफलता के बाद सर सैयद अहमद खान ने एम ए ओ कॉलेज की स्थापना की, जो आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना। यहाँ से अनेक मुस्लिम परिवारों ने आधुनिक पश्चिमी शिक्षा ग्रहण की। 1887 में बदररूद्दीन तैयबजी को इसका तीसरा अध्यक्ष चुना गया।
1918 में ब्रिटिश और फ्रेंच आर्मी ने इस्तांबुल पर कब्जा करके ऑटोमेन साम्राज्य का अंत कर दिया था। भारतीय मुसलमानों ने खलीफा की सत्ता को बहाल करने के लिए 1919-1924 के बीच खिलाफत आंदोलन चलाया था। महात्मा गांधी ने इसे सहयोग दिया था। यद्यपि खलीफा की सत्ता बहाल नहीं हो पाई, परन्तु इस्लाम फलता-फूलता रहा।
1947 में स्वतंत्रता के समय एक और महत्वपूर्ण मोड़ आया। मुस्लिम उलेमाओं ने विभाजन का विरोध किया। अधिकांश मुसलमानों ने विभाजन के विचार का विरोध किया था, और वे 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के लिए मतदाता भी नहीं थे। अधिकतर मुसलमानों ने भारत में ही रहना पसंद किया। इस दौरान हिंसा में करीब 5 लाख लोग मारे गए। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में असंख्य हिन्दुओं ने अल्पसंख्यकों की रक्षा की। जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान को धर्मतांत्रिक राज्य बना दिया गया, जबकि भारत ने उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र बने रहना चाहा।
भारतीय धर्र्मनिरपेक्षता ने मुसलमानों को इस बात के लिए आश्वस्त कर दिया कि इस देश का अपना कोई राजधर्म नहीं होगा, और उन्हें भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता दी जाएगी। कुछ वर्षों में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात की पुष्टि कर दी कि धर्म निरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकार, भारतीय संविधान की मूलभूत संरचना का हिस्सा हैं। इसे सांवैधानिक संशोधन के द्वारा भी बदला नहीं जा सकता।
1992 में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया। भारतीय मुसलमानों को एक बार फिर धक्का लगा। तब भी उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं ने इस कृत्य की कटु निंदा की, और मुस्लिम समुदाय को ढांढस भी बंधाया।
2002 में गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा भड़की और इस बात के बहुत से प्रमाण हैं कि राज्य सरकार ने संवैधानिक दायित्वों का समय से पालन नहीं किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने राज्य सरकार को उसका राजधर्म याद दिलाया। इस हिंसा में कुछ नही तो 2000 मुसलमानों की हत्या हुई। इसके बाद कई पुलिस अधिकारियों और नेताओं को सजा भी दी गई। हाल ही में बिलकिस बानो को सर्वोच्च न्यायालय ने 50 लाख का मुआवजा देने के निर्देश दिए हैं। दुर्भाग्यवश, इस हिंसा ने गुजरात के हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक दीवार खींच दी, लेकिन गुजराती मुसलमानों की जिन्दगी रुकी नहीं है।
2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आते ही गोमांस को लेकर भीड़ के द्वारा हत्या करने की अनेक घटनाएं होने लगीं। इसमें लगभग 35 मुसलमानों की जघन्य हत्या की गई। यह मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए एक चुनौती थी। कोई भी सरकार जो अपने नागरिकों की रक्षा नहीं कर सकती, अपनी जनता की निष्ठा प्राप्त करने का अधिकार खो देती है। अंततः प्रधानमंत्री ने तथाकथित गौ- रक्षकों की निंदा करते हुए उन्हें अपराधी की श्रेणी में रखा। कुछ समय तक “लव जिहाद“ का दौर भी चला। राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी को इसकी जाँच का काम सौंपा गया। लेकिन कुछ पुख्ता प्रमाण नहीं मिले।
मोदी सरकार ने तीन तलाक को भी बड़ा मुद्दा बनाया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद इसे अपराध करार दिया गया। अगर मोदी सरकार चाहे तो मुसलमानों को कुरान में तलाक के लिए दिए तर्कसंगत तरीकों का पालन करने के लिए बाध्य कर सकती है। इससे सामाजिक मुद्दों में फौजदारी कानून के हस्तक्षेप की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
भाजपा तीन मुद्दों पर लगातार जोर देती चली आई है- (1) समान नागरिक संहिता, (2) राम मंदिर का निर्माण और (3) धारा 370 को खत्म करना। इनमें से कोई भी भारतीय मुसलमानों के लिए जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं है। बहुत से देशों में समान नागरिक संहिता लागू की गई है, फिर भी वहाँ मुसलमान पनप रहे हैं। भारत के संदर्भ में इसे मतों के धु्रवीकरण का कारण माना जा सकता है। लेकिन यहाँ के हिन्दू ही शायद इसके लिए तैयार न हों। 2018 में विधि आयोग ने कहा था कि समान नागरिक संहिता की न तो आवश्यकता है, और न ही यह संभव है।
जहाँ तक राम मंदिर का संबंध है, मोदी सरकार ने हमेशा ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को माने जाने पर जोर दिया है।
अनुच्छेद 370 का मामला मुसलमानों का नहीं, बल्कि संघवाद और जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता से जुड़ा हुआ है। अगर वहाँ की विधानसभा इसके लिए सहमति दे देती है, तो कोई इसका विरोध नहीं कर सकता। बहरहाल 370 एक ऐसा प्रावधान है, जो अंदर से खोखला हो चुका है।
अगर कोई भी सरकार सत्तावादिता के चलते लोगों का दमन करती है, गरीबों के हितों की कीमत पर कार्पोरेट को बढ़ावा देती है और अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन पर मौन रहती है, तो यह पूरे देश के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। किसी भी सरकार की प्रतिगामी नीतियां, देश के केवल अल्पसंख्यकों को नहीं बल्कि समस्त नागरिकों को प्रभावित करती हैं।
एन डी ए का नेता चुने जाने के बाद प्रधानमंत्री ने जिस तरह से अल्पसंख्यकों को आश्वस्त किया है, वह मर्मस्पर्शी था। अगर वे अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को निर्मूल साबित करने के लिए कदम उठाते हैं, तो इससे उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि अच्छी होगी। मुसलमानों को चाहिए कि अपनी जीत को वे जैसे अल्पसंख्यकों का ‘विश्वास’ कह रहे हैं, उसका स्वागत करें। उम्मीद की जा सकती है कि मोदी सरकार ‘‘सबके लिए न्याय, तुष्टीकरण किसी के लिए नहीं’’ की नीति को कार्यान्वित करेगी। मुस्लिमों को तो बस न्याय चाहिए।
Very Nice Post
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