17वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न होने के पश्चात् यदि एक नजर पूरी प्रक्रिया पर डाली जाए, तो इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन चुनावों में अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदी के विनाश के लिए चरम सीमा तक प्रयास किए गए। स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक जिन्होंने 10 आम चुनावों को देखा है, वे इस बात को स्वीकार करेंगे कि चुनावी राजनीति का इतना पतन कभी नहीं हुआ था।
पूरी चुनाव प्रक्रिया में कुछ सकारात्मक पक्ष भी सामने आए। (1) मतदान का प्रतिशत लगभग 67.11 रहा। (2) बूथ कैप्चरिंग जैसी कोई घटना नहीं हुई। (3) इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन तकनीक की किसी भी सामग्री की विपफलता का कोई प्रमाण नहीं मिला है।
परन्तु इन पैमानों पर प्रजातंत्र का आकलन करना, उसके स्तर को नीचा करना है। खास बात तो प्रजातंत्र की आत्मा में पैठ चुके भ्रष्टाचार पर विचार करने की है, जिससे प्रत्येक नागरिक प्रभावित होता है।
- पहला प्रश्न उठता है कि आखिर इन आम चुनावों से भारत के भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है?
1. पिछले कुछ समय से संसद के सत्रों को विपक्ष द्वारा अवरोधित किए जाने की घटनाएं आम हो चुकी हैं इनमें बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। ऐसी काई उम्मीद नजर नहीं आ रही है कि राजनीतिक दल, देश को अपने राजनतिक हितों से ऊपर मानकर चलेंगे।
2. भारतीय विदेश नीति एक दो अपवादों को छोड़कर सदा ही रक्षात्मक रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान की धूर्तता और चीन के बढ़ते सैन्यीकरण को देखते हुए एक मुखर विदेश नीति की आवश्यकता आन पड़ी है। इन स्थितियों का सामना करने के लिए सरकार और विपक्ष को एकजुट होकर चलना होगा।
3. अर्थव्यवस्था को विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।
- उपभोक्त आधारित मांग में मंदी आ रही है।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ता जा रहा है।
- बैलेंस शीट में हेर-फेर से विदेशी और घरेलू निवेश प्रभावित हो रहा है।
- बैंकिंग क्षेत्र में अव्यवस्था फैली हुई है।
यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह भूमि और श्रम सुधार कानून, अनुत्पादक सब्सिडी, विदेशी निवेश को आकर्षित करने, निजी निवेश और व्यापार में उत्पादन तथा सेवा प्रदान करने के लिए किस प्रकार की व्यवस्था करती है। चुनावों व चुनाव पूर्व उठाए गए सरकारी कदम निकट अवधि के लाभ को देखकर उठाए जाते हैं, जिनमें अपारदर्शिता होती है। लेकिन सरकार को अब दीर्घकालीन लाभों के लिए पारदर्शी नीतियां बनानी होंगी।
4. चुनावों के रुख को तार्किक रखने के बजाय भावनात्मक रखा गया। ऐसा लग रहा है कि प्रत्येक सामाजिक मुद्दे को भी राजनीतिक विचारधारा के नजरिए से देखा गया है।
हमारे प्रगतिशील विचारों के इतिहास में, समानता और स्वतंत्रता की सांवैधानिक आकांक्षाओं को सामाजिक पिछड़ेपन की ओर धकेल दिया गया है। सामाजिक सुधार वहीं सम्पन्न किए जा सकते हैं, जहाँ सार्थक वाद-विवाद और आधुनिक विचारों का रचनात्मक आदान-प्रदान हो सके। अतः इस प्रवृत्ति को जल्द से जल्द संवैधानिक अधिकारों की ओर मोड़ा जाना चाहिए।
5. प्रजातंत्र को न्यायपालिका, चुनाव आयोग तथा स्वतंत्र मीडिया जैसी स्वायत्त संस्थाओं के नियंत्रण और संतुलन के इर्द-गिर्द घूमना चाहिए। इन चुनावों के मद्देनजर, देश के प्रमुख संस्थानों की शक्ति पर बहुत आँच आई है। मीडिया के ध्रुवीकरण एवं निष्पक्षता की कमी से स्थिति बहुत खराब हो गई है।
- इन संदर्भों में दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या हमारा भविष्य बिल्कुल असुरक्षित है?
उम्मीद की किरण हमेशा विद्यमान रहती है। हमारी तत्परता और उत्तरदायित्व की भावना से स्थितियों को संभाला जा सकता है।
1. जन समुदाय, नागरिक समितियों के लिए यही उत्तम समय है, जब वह जिम्मेदारी लेते हुए स्थितियों को सुधारने के लिए सक्रिय भूमिका निभाएं। राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा हेतु प्रजातांत्रिक भागीदारिता को जगाए रखने की आवश्यकता है।
2. संसद और विधानसभाओं के उचित कामकाज के लिए इससे जुड़ी संस्थाओं को मिलकर मांग करनी होगी, और दबाव बनाना होगा। इसके लिए नागरिकों का एक समूह तैयार किया जा सकता है, जो चुने हुए प्रतिनिधियों की गतिविधियों पर नजर रखे।
3. उद्योग और व्यापार जगत् को अपने क्षुद्र लाभों से ऊपर उठकर राष्ट्र हितों को प्राथमिकता देनी होगी।
4. भारत में सामाजिक रूपांतरण के लिहाज से सामाजिक समितियों की महती भूमिका रही है। संसद तो केवल कानून बना सकता है। उसका पालन करने का उत्तरदायित्व जितना न्यायपालिका पर है, उतना ही सक्रिय और जागृत नागरिकों पर भी है।
5. स्वायत्त संस्थानों की अखंडता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी जनता को आवाज उठानी चाहिए। जन-आंदोलन में अपार शक्ति होती है। जरूरत है, तो बस उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की।
इन सामाजिक दबावों से राजनीतिक वर्ग में भी परिवर्तन की उममीद की जा सकती है। इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि संगठित और सक्रिय सभ्य समाज की मौजूदगी, देश के लिए एक शानदार रूपांतरण का कारण बन सकती है।
0 comments:
Post a Comment