सन् 2005 में न्यायाधीश सच्चर की अध्यक्षता में सच्चर समिति बनाई गई थी। इसका उद्देश्य भारत में मुस्लिम समुदाय के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर की रिपोर्ट तैयार करना था।
न्यायाधीश सच्चर स्वयं में बहुत अच्छे न्यायवेत्ता, समाजवादी दूरदृष्टा, एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष, नागरिक स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक और एक अच्छे मनुष्य थे। मुस्लिम संप्रदाय पर तैयार की गई उनकी रिपोर्ट ने भारतीय मुसलमानों की वास्तविक स्थिति की खुली तस्वीर दिखा दी थी। यही कारण है कि राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों के बीच यह तीखी चर्चा का विषय बन गई थी। आखिर इस रिपोर्ट ने ऐसा क्या बयां किया, जिससे पूरे देश में प्रतिक्रियाएं होने लगी थीं।
रिपोर्ट पर एक नजर
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही मुसलमानों के संदर्भ में बढ़ती आर्थिक असमानता, सामाजिक असुरक्षा और अलगाव की भावना को रिपोर्ट के माध्यम से पहली बार उजागर किया गया।
- 2001 में 13.8 करोड़ की मुस्लिम जनसंख्या की सरकारी सेवाओं, पुलिस, सेना और राजनीति में पर्याप्त भागीदारी नहीं है।
अन्य भारतीयों की तुलना में मुसलमानों को अशिक्षित, गरीब और अस्वस्थ पाया गया। अतः मुस्लिम जनता के तुष्टीकरण का नारा देने वाली सरकारों और राजनैतिक दलों की पोल पूरी तरह से खुल गई।
इस रिपोर्ट के आते ही भाजपा के अलावा सभी राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में रिपोर्ट की सिफारिशों को जगह मिलने लगी। लेकिन इसके बाद के वर्षों में भी केन्द्र व राज्य सरकारों ने ऐसे कोई काम नहीं किए, जिन्हें रिपोर्ट की सिफारिशों के लिए उत्सावर्धक माना जाता।
- रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि आवास और रोजगार के निजी क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव को रोका जाए। इसके लिए समान अवसर आयोग की स्थापना की जाए। इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गई।
- रिपोर्ट में निर्वाचन क्षेत्रों के अनुचित बंटवारे को भी रेखांकित किया गया था। इसके कारण मुस्लिम बहुल वाले निर्वाचन क्षेत्रों से भी मुसलमानों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है। विधानसभा में उनकी सीटों की संख्या कम है।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश को लिया जा सकता है। वहाँ पर बसी मुस्लिम जनसंख्या को देखते हुए निर्वाचन क्षेत्रों का उचित सीमांकन नहीं किया गया है। उल्टे, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों की सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गई हैं। और जहाँ अनुसूचित जाति का बाहुल्य है, वे सीटें अनारक्षित हैं।
परिसीमन समिति से इसे ठीक करने की अपेक्षा की गई थी, लेकिन उसने सच्चर समिति की सिफारिश की अनदेखी कर दी।
बदले परिदृश्य में होने वाले चुनावों में आज किसी दल ने भी सच्चतर समिति की सिफारिशों को अपने घोषणा पत्र में जगह नहीं दी है। इस प्रकार से देश की राजनीति में एक सच्चे समाजवादी विचारक और लोहिया के विचारों के समर्थक के अस्तित्व का अंत कर दिया गया है।
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