संस्थाओं की स्वायत्तता का सवाल

संदर्भ
पिछले दिनों जहाँ CBI के मामले में सरकार द्वारा गैर-ज़रूरी दखल का मामला सामने आया, वहीं सरकार पर आरोप लगा कि वह RBI की आज़ादी पर पाबंदी लगाना चाह रही है। इस आरोप को और मज़बूती तब मिली जब RBI के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह RBI की स्वायत्तता पर अंकुश लगाना चाहती है।
  • हालाँकि, गौर किया जाए तो सत्ताधारी सरकार और स्वायत्त संस्थानों के बीच विवाद कोई नई बात नहीं है। लेकिन हालिया वर्षों में इसमें तेज़ी से इजाफा हुआ है। ऐसे में सवाल है कि क्या केंद्र सरकार का गैर-ज़रूरी दखल लोकतांत्रिक प्रणाली में रक्त वाहिनियों का काम करने वाली स्वायत्त संस्थाओं को कमज़ोर नहीं कर रहा है?
  • जब सरकार की मंशा संस्थाओं के काम-काज में दखल देकर उन्हें प्रभावित करने की है तो फिर इन संस्थाओं को स्वायत्तता देने के प्रावधान का क्या औचित्य है? हालिया CBI का मामला इसी का दूसरा पहलू है।
  • संस्थाओं को स्वायत्तता देने के पीछे यह मंशा थी कि देश की जनता के हित में काम करने वाली ये संस्थाएँ पूरी पारदर्शिता के साथ अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करेंगी, ताकि देश के सिस्टम पर लोगों का भरोसा कायम रहे। लेकिन, इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर अंकुश की कोशिश न केवल लोकतांत्रिक प्रणाली को कमज़ोर करती है बल्कि, संविधान को उसकी बुनियादी सोच से भी दूर करती है। लिहाज़ा, इस बात की कोशिश तो होनी ही चाहिये कि संस्थानों की स्वायत्तता को मज़बूती देकर पारदर्शिता बहाल की जाए। ऐसे में सवाल है कि संस्थानों की पारदर्शिता के लिये सरकार की क्या कोशिश होनी चाहिये? सवाल यह भी है कि क्या स्वायत्तता पर हमला उसकी उत्कृष्टता को कम करना नहीं है?
इस लेख के माध्यम से हम इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
हालिया वर्षों में संस्थाओं की स्वायत्तता पर विवाद के मामले
भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के अध्यक्ष की नियुक्ति
केंद्र सरकार पर बेवज़ह संस्थानों के काम-काज में दखल देने का आरोप लगता रहा है। इस तरह का पहला मामला 2015 में प्रकाश में आया जब गजेन्द्र चौहान को भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान का अध्यक्ष बनाया गया। इस मामले में मनमाने ढंग से नियुक्ति कर संस्थान की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ करने का आरोप सरकार पर लगा था।
सेंसर बोर्ड
  • इसी तरह, केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड भी केंद्र सरकार की वज़ह से विवादों में रहा। सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष पहलाज निहलानी पर अनावश्यक रूप से फिल्मों को पास करने में अड़ंगे लगाए जाने के आरोप लगने लगे। बोर्ड के काम करने के तरीके से फिल्म इंडस्ट्री में व्यापक असंतोष फैल गया। फिर केंद्र सरकार पर बोर्ड के ज़रिये छिपे हुए एजेंडे के अनुरूप काम करने के आरोप लगने लगे।
न्यायालय और सरकार
  • वर्ष 2018 की शुरुआत में ही देश के सामने एक अजीब-सी स्थिति तब पैदा हो गई जब सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिये देश को बताया कि संविधान और लोकतंत्र खतरे में है और जजों को ठीक से काम करने नहीं दिया जा रहा है।
  • साथ ही, जजों की कमी और उनकी नियुक्ति को लेकर सरकार और कोर्ट के बीच रस्साकशी का मामला भी आए दिन चर्चा में रहता है। अक्सर ही सरकार मुख्य न्यायाधीश द्वारा सुझाए गए नए जजों के नामों से इत्तेफाक नहीं रखती। लिहाज़ा, अक्सर टकराहट की स्थिति पैदा हो जाती है।
CBI बनाम CBI
स्वायत्तता के इस मसले ने तब तूल पकड़ा जब CBI और RBI का मामला प्रकाश में आया।
  • CBI के दो बड़े अधिकारियों के बीच लड़ाई का पब्लिक डोमेन में आना और सरकार द्वारा उसमें दखल देने के तरीकों ने सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिये। विवाद में सरकार की दखलंदाज़ी से ऐसा ज़ाहिर होने लगा कि CBI की स्वायत्तता केवल एक दिखावा मात्र है। इससे यह भी पता चला कि सरकार के नज़रिये के विपरीत चलने के प्रयास में टकराव निश्चित है। सरकार द्वारा CBI निदेशक को छुट्टी पर भेजकर मनमाने तरीके से नए निदेशक की नियुक्ति भी सवालों के घेरे में है।
RBI बनाम केंद्र सरकार
  • दूसरा अहम मसला केंद्रीय बैंक RBI का है जिसमें सरकार अपने उन अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहती थी जिनका RBI के 8 दशक के इतिहास में अब तक नहीं किया जा सका है।
  • हालाँकि, RBI एक्ट, 1934 की धारा 7 केंद्र सरकार को यह विशेषाधिकार देती है कि वह केंद्रीय बैंक के असहमत होने की स्थिति में सार्वजनिक हित को देखते हुए गवर्नर को निर्देशित कर सकती है और सरकार के निर्देशन को RBI मानने से इनकार नहीं कर सकता है।
  • सरकार चाहती थी कि RBI के रिज़र्व का इस्तेमाल बैंकों के रीकैपिटलाइज़ेशन के लिये किया जाए लेकिन, RBI की दलील है कि रिज़र्व का उपयोग नहीं किया जा सकता। लिहाज़ा, सरकार की इस कोशिश को RBI की स्वायत्तता पर हमले के रूप में देखा जा रहा है।
उपरोक्त सभी विवादों के अतिरिक्त वर्ष 2018 में यूजीसी की जगह भारतीय उच्च शिक्षा आयोग, प्रतिष्ठित संस्थानों की सूची में जियो नामक संस्थान को जगह देने का मामला सुर्खियों में रहा।
संस्थाओं को स्वायत्तता की ज़रूरत क्यों?
  • दरअसल, संस्थाओं को मोटेतौर पर दो भागों में बाँटा गया है- संवैधानिक और गैर-संवैधानिक।
  • गैर-संवैधानिक संस्थाओं को सांविधिक, वैधानिक आदि वर्गों में विभाजित किया जाता है। फिर इन संस्थाओं के अलग-अलग कार्य और शक्तियाँ भी हैं।
  • निर्वाचन आयोग, लोक सेवा आयोग, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, कैग, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग आदि के सदस्यों को कार्यकाल की सुरक्षा दी गई है। यानी भ्रष्टाचार या कदाचार में संलिप्त होने के बाद ही इन्हें पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। दूसरी तरफ, इनके काम करने की शक्तियों में इन्हें एक तरह की आज़ादी दी गई है। जिसके ज़रिये इन्हें फैसले लेने की स्वायत्तता है।
  • दरअसल, स्वयात्तता देने के पीछे मंशा होती है कि बिना किसी राजनैतिक प्रभाव के इन संस्थाओं को अपने अधिकारों का उपयोग करने का मौका मिले। जब आज़ादी से अपने अधिकारों का उपयोग करने का मौका मिलेगा तो सिस्टम में पारदर्शिता आएगी और सरकारी संस्थाओं पर लोगों के भरोसे को मज़बूती मिलेगी। संस्थागत स्वायत्तता से भ्रष्टाचार और किसी भी प्रक्रिया में अनियमितताओं पर लगाम लग सकेगी।
  • लेकिन यह भी सच है कि ऐसा तभी संभव हो सकेगा जब संस्थाओं के मुखिया अपने काम के प्रति निष्ठावान हों और बिना किसी राजनैतिक प्रभाव में काम करने को इच्छुक हों। लेकिन, हालिया वर्षों में सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि वह संस्थाओं के उच्च पदों पर मनमानी नियुक्ति कर अपने एजेंडों को आगे बढ़ाना चाहती है।
ज़ाहिर है, संस्थाओं के मुखिया की नियुक्तियों में पारदर्शिता नहीं बरती जाएगी तो उनके द्वारा किये गए काम में पारदर्शिता की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती है। फिर किसी भी संस्थान का राजनैतिक प्रभाव में काम करना एक स्वाभाविक बात हो जाएगी।
आगे की राह
  • दरसअल, संस्थानों की स्वायत्तता और पारदर्शिता का मसला एक अहम मसला है। लेकिन किसी भी संस्थान को राजनैतिक रूप से प्रभावित कर चुनावी फायदे हासिल करने की कोशिशों के बीच आम जनता के मन में इन संस्थाओं के प्रति एक प्रकार का संदेह पैदा होने लगा है। हालिया CBI विवाद इसी का एक पहलू है। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फैसलों को आम जनता राजनीतिक रूप से प्रभावित ही मानने लगी है।
  • प्रवर्तन निदेशालय और CBI जैसी संस्थाओं को सरकार द्वारा एक राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की परिपाटी तो आए दिन चर्चा में रहती है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने CBI को पिंजरे का तोता कहा था। लिहाज़ा, संस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिये दो काम किये जाने की ज़रूरत है।
  • पहला यह कि उच्च संस्थानों के प्रमुखों और सदस्यों की नियुक्ति के प्रावधानों को और मज़बूत तथा पारदर्शी बनाया जाए। ताकि सत्ताधारी दल छुपे राजनीतिक स्वार्थ को साध नहीं सके और योग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया जा सके। साथ ही हर संस्थान के अधिकारियों को कार्यकाल की पूरी सुरक्षा दी जाए ताकि वे बिना किसी भय के अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करे सकें।
  • दूसरा यह कि संस्थाओं की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिये सरकारी दखलअंदाज़ी में कमी लानी होगी। हर संस्थान को प्रशासनिक और वित्तीय आज़ादी दी जाए ताकि वे स्वतंत्र रूप से अपने फैसले ले सकें।
  • समझना होगा कि संस्थाओं के कामकाज में स्वायत्तता गुणवत्तापूर्ण कार्य और पारदर्शिता के लिये बेहद ज़रूरी है। सार्वजनिक संस्थानों के ज़रिये लोगों को मुहैया कराए जा रहे शासन की गुणवत्ता नागरिकों के लिये सबसे अहम है। हालाँकि, यह केवल संस्थागत स्वायत्तता पर ही अपनी निगाहें जमाने से हासिल नहीं होगा। बल्कि, सुशासन के सिद्धांत के साथ-साथ इसे अमल में लाने के लिये स्वायत्तता को पारदर्शिता और जवाबदेही से संतुलित किये जाने की ज़रूरत है।
निष्कर्ष
  • किसी भी संस्थान को जितनी अधिक स्वायत्तता दी जाए उतनी ही अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही भी उसमें होना ज़रूरी है। मौजूदा वक्त में उत्कृष्ट प्रौद्योगिकी की बदौलत संस्थानों में ज़्यादा-से-ज़्यादा पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकती है। ज़ाहिर है इससे संस्थानों की उत्कृष्टता में बढ़ोतरी होगी।
  • सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये संस्थानों को भयमुक्त होकर काम करना होगा और यकीनन इसकी राह स्वायत्तता से ही निकलती है। स्वायत्तता की अवधारणा के साथ ही यह भी सोचना होगा कि यह स्वायत्तता कहीं अराजक न बनने पाए। इसके लिये ऐसे प्रावधानों की भी ज़रूरत है जो समय-समय पर संस्थानों की निगरानी कर सके। बहरहाल, आज ज़रूरत है ऐसी नीतियाँ बनाने एवं उन्हें लागू करने की जिससे सार्वजनिक संस्थाओं के कार्यों में पारदर्शिता आए और संस्थाओं पर लोगों के भरोसे को मज़बूती मिल सके।
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Milan Tomic

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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