चर्चा का कारण
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी-सी-घोष) को राष्ट्रपति ने देश का पहला लोकपाल नियुक्त किया है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली ‘चयन समिति’ (Selection Committee) ने लोकपाल के अध्यक्ष, न्यायिक और गैर-न्यायिक सदस्यों का चयन करके नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति के पास नाम भेजे थे, जिस पर राष्ट्रपति ने अपनी अंतिम मंजूरी दे दी है।
परिचय
लोकपाल एक ‘भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण’ (Anti-corruption Authority) है जिसे ओम्बुड्समैन (Ombudsman)) भी कहा जाता है। यह भ्रष्टाचार एवं अन्य जन शिकायतों के निवारण के लिए संस्थागत तंत्र के रूप में कार्य करता है। भारत में केन्द्र स्तर पर इस भ्रष्टाचार विरोधी संस्था का नाम लोकपाल है और राज्य स्तर पर इस संस्था का नाम लोकायुक्त है। दूसरे शब्दों में, भारत में ओम्बुड्समैन के मॉडल को लोकपाल व लोकायुक्त की संज्ञा दी जाती है और इसके लिए ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ को भी निर्मित किया गया है। इसके अतिरिक्त, भारत में लोकपाल एवं लोकायुक्त को मुख्यतः भ्रष्टाचार निवारण तंत्र के रूप में निर्मित किया किया गया है न कि जनता की शिकायतों के निवारण के संदर्भ में।
लोकपाल के संबंध में महत्वपूर्ण तथ्य
भारत में लोकपाल की अवधारणा स्वीडन से ग्रहण की गई है।
ओम्बुड्समैन की तर्ज पर ‘लोकपाल’ शब्द को 1963 में डॉ- एल-एम- सिंघवी द्वारा गढ़ा गया था।
संसद में सर्वप्रथम लोकपाल से संबंधित विधेयक लोकसभा सदस्य शांति भूषण द्वारा प्रस्तावित किया गया।
लोकपाल शब्द की उत्त्पति संस्कृत शब्दों ‘लोक’ (लोग) तथा ‘पाल’ (रक्षक) से हुई है, जिसका अर्थ है ‘लोगों का रक्षक’।
देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की तरह ही लोकपाल को भी शपथ राष्ट्रपति द्वारा दिलाई जाती है।पृष्ठभूमि
जन शिकायत निवारण तंत्र की अवधारणा स्वीडन में विकसित हुई। सर्वप्रथम 1809 ई- में स्वीडन में ओम्बुड्समैन नामक अधिकारी की नियुक्ति की गई। ओम्बुड्समैन अधिकारी, विधायिका की ओर से जनता की शिकायतों की सुनवाई करता है और उनका निराकरण करता है। इस पैटर्न पर विश्व के 40 से अधिक देशों ने जन शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना अलग-अलग रूपों में की है, जैसे- ब्रिटेन में पार्लियामेंट्री कमिश्नर, फ्रांस में प्रशासनिक न्यायालय एवं पूर्व सोवियत संघ में प्रॉक्यूरेटर की अवधारणा इत्यादि।
भारत में ओम्बुड्समैन के सदृश लोकपाल के पद के सृजन के लिए किए जा रहे प्रयासों का इतिहास कई वर्ष पुराना है। आजादी के बाद ही देश में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक स्वतंत्र संस्था की स्थापना की माँग उठने लगी थी। इसकी स्थापना के लिए एम-सी- सीतलवाड़, एल-एम- सिंघवी एवं अनेक अन्य कानूनविदों तथा सांसदों के साथ-साथ प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966 ई-) ने भी पुरजोर वकालत की थी। प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में केन्द्र स्तर पर लोकपाल के साथ-साथ राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति की संस्तुति भी की थी।
लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक सर्वप्रथम 1968 ई- में लोक सभा में पेश हुआ और वहाँ से पारित होने के बाद राज्य सभा में भेजा गया। परंतु, लोक सभा के दिसम्बर, 1970 में विघटन के कारण यह राज्य सभा में पारित हुए बिना व्यपगत (Lapsed)) हो गया। इसके बाद यह बिल 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 में लोक सभा में पेश हुआ पर हर बार लोकसभा के विघटन या अन्य कारणों से यह विधेयक व्यपगत हो गया।
सन् 2005 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरकार को लोकपाल एवं लोकायुक्तों की नियुक्ति शीध्र करनी चाहिए, ताकि शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सके, लेकिन सरकार ने आयोग की इस सिफारिश को भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया। इस प्रकार, कई बार संसद में लोकपाल व लोकायुक्त से संबंधित विधेयक के व्यपगत होने और प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को सरकार द्वारा अनसुना कर देने से जनता सन् 2011 में आंदोलित हो गयी। सन् 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में लगभग पूरे देश ने भ्रष्टाचार विरोधी तंत्र (लोकपाल व लोकायुक्त) को कानूनी रूप से गठित करने हेतु माँग की। अन्ततः सन् 2013 में केन्द्र सरकार ने ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ को पारित किया।ब्रिटेन का पार्लियामेंटरी कमिश्नर
यह जनता के शिकायतों को दूर करने की एक प्रभावी एवं जवाबदेह व्यवस्था है जहाँ कोई व्यक्ति अपनी शिकायत सीधे पालियामेन्टरी कमिश्नर को नहीं भेजता बल्कि यहाँ ‘एम-पी- फिल्टर सिस्टम’ (M.P. Filter System) प्रचलित है। अतः प्रत्येक व्यक्ति अपनी शिकायत अपने क्षेत्र के सांसद को सौंपता है और वह शिकायत दूर करने का प्रयत्न करता है। यदि वह इस प्रयत्न में असफल रहता है तो की गई संपूर्ण कार्यवाही सहित इसकी सूचना पार्लियामेन्टरी कमिश्नर को भेजता है और यह उस शिकायत का अंतिम समाधान करता है तथा अपनी रिपोर्ट ब्रिटिश ताज/संसद को सौंपता है।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013
केन्द्र स्तर पर लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्तों द्वारा स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से भ्रष्टाचार से संबंधित जाँच कराने हेतु ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं-
यह अधिनियम कहता है कि केन्द्र स्तर पर एक लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्तों का गठन किया जायेगा।
लोकपाल की संस्था में एक अध्यक्ष व अधिकतम 8 सदस्यों का प्रावधान है, जिसमें आधे सदस्य (अर्थात् 4 सदस्य) न्यायिक क्षेत्र से होंगे और शेष आधे सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), महिला और अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे।
लोकपाल संस्था के अध्यक्ष व सदस्यों का चयन एक चयन समिति द्वारा किया जायेगा, जिन पर नियुक्ति की अंतिम मुहर राष्ट्रपति की होगी।
लोकपाल सभी लोक सेवकों की जाँच कर सकता है, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री का पद भी लोकपाल की जाँच के दायरे में होगा, लेकिन बहुत सारे विषयों में वे (प्रधानमंत्री) लोकपाल से परे हैं। उनके खिलाफ आरोप के निपटारे के लिए विशेष प्रक्रिया अपनायी जायेगी।
इस अधिनियम का महत्वपूर्ण उपबंध यह भी है कि अभियोजन (Prosecution) के लंबित होने की स्थिति में भी आरोपित लोकसेवक द्वारा भ्रष्ट साधनों से एकत्रित की गई संपत्ति को जब्त करने का आदेश लोकपाल दे सकता है।
सभी संगठन या तत्व जो फॉरेन कॉट्रिब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (एफ.सी.आर.ए.) के तहत विदेशी ड्डोतों से दान या सहायता राशि प्राप्त करते हैं उन्हें भी लोकपाल के दायरे में रखा गया है (यदि ऐसी सहायता राशि प्रतिवर्ष 10 लाख रुपए से ऊपर हो तो)।
लोकपाल संस्था के माध्यम से ईमानदार अधिकारियों को पर्याप्त संरक्षण दिए जाने का भी प्रावधान है।
लोकपाल स्वयं द्वारा प्रेषित किए गए मुद्दे की जाँच कराने के क्रम में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो सहित अन्य जाँच एजेंसियों का अधीक्षण करने एवं उन्हें निर्देश देने की शक्ति से भी युक्त होगा। साथ ही, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो या अन्य जाँच एजेंसियों के वैसे अधिकारी जो लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की जाँच कर रहे हों, तो उनका स्थानान्तरण लोकपाल के अनुमोदन से ही हो सकता है।
अधिनियम प्रारम्भिक जाँच, पड़ताल और अभियोजन के लिए निश्चित समयावधि (6 माह) निर्धारित करता है और इसके लिए विशेष न्यायालयों के गठन का भी उपबंध करता है। प्रारंभिक जाँच, पड़ताल और अभियोजन की निर्धारित समयावधि को 6 माह के लिए और बढ़ाया जा सकता है (यदि समुचित कारण उपलब्ध हो तो)।
विधेयक में इस बात का भी प्रावधान है कि इस अधिनियम के प्रारम्भ की तारीख से 365 दिनों के भीतर राज्य विधायिकाओं को भी विधि द्वारा लोकायुक्त की संस्था का गठन करना होगा।
लोकपाल संस्था के प्रशासकीय व्यय भारत की संचित निधि (Consolidated Fund) पर भारित होंगे। लोकपाल के अध्यक्ष का वेतन, भत्ता और सेवा शर्तें भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के समान होंगी एवं अन्य सदस्यों के वेतन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान होंगी।
इस अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि जो भी लोक सेवक किसी सार्वजनिक संस्था में भ्रष्टाचार को उजागर करता है अर्थात् व्हिसलब्लोअर की भूमिका को निभाता है, उसे पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराई जाये।
यदि लोकपाल को पहली नजर में यह लगता है कि कोई भी लोक सेवक भ्रष्टाचार में लिप्त है तो वह उसे समन जारी कर सकता है, चाहे उस लोक सेवक के खिलाफ जाँच प्रारंभ हुई हो या नहीं।लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया
केन्द्र स्तर पर लोकपाल की नियुक्ति के लिए दो समितियों की मुख्य भूमिका है-
चयन समिति (Selection committee)
सर्च समिति (Search Committee)
सर्च समिति को चयन समिति की सहायतार्थ हेतु गठित किया गया है। सर्च समिति का दायित्व है कि वह लोकपाल के अध्यक्ष व सदस्यों के नामों को खोजकर चयन समिति को सौंपे। इसके बाद चयन समिति इन नामों से चुनाव करके अंतिम अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति को भेजती है।
सर्च समितिः वर्तमान में इसके आठ सदस्य हैं, जिसमें अनिवार्य रूप से आधे सदस्य अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिला एवं अल्पसंख्यक समुदाय से होते हैं।
चयन समितिः इस समिति में एक अध्यक्ष (प्रधानमंत्री) और चार सदस्य होते हैं। चार सदस्यों में लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष का नेता या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या इनके द्वारा नामित किये गए सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश और उक्त चारों के द्वारा संस्तुत कोई प्रख्यात विधि वेत्ता, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
सन् 2013 के बाद की स्थिति
सन् 2013 में ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम’ बनने के बाद सरकार की तरफ से इसे व्यवहार में स्थापित करने के लिए उल्लेखनीय प्रयास नहीं किये गये। शुरु में सरकार ने एक सर्च कमेटी का गठन किया, जिसे लोकपाल व उसके सदस्यों के नाम सुझाने का दायित्व था, लेकिन सर्च कमेटी के अध्यक्ष ने पदभार ग्रहण करने से मना कर दिया और कहा कि इस सर्च कमेटी को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं है।
सन् 2014 में नई सरकार के गठित होने पर सर्च कमेटी के उपर्युक्त मुद्दों का हल ढूँढा गया और सर्च कमेटी को पर्याप्त स्वतंत्रता व शक्ति प्रदान की गयी। लेकिन इसके बाद से नई समस्याओं ने जन्म लिया जो चयन समिति से संबंधित थी। चयन समिति में ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ के रूप में सदस्य नहीं मिल पा रहा था, क्योंकि सन् 2014 के आम चुनाव में किसी भी विपक्षी पार्टी ने इतनी सीटें नहीं हासिल की थीं कि वह ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ का दर्जा हासिल कर सके। सन् 2015 में संसदीय समिति की रिपोर्ट आई कि ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में संशोधन करके यह जोड़ा जाये कि चयन समिति में सदस्य के रूप में ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता (चाहे उसे लोकसभा में विपक्षी पार्टी बनने का अवसर मिला हो या नहीं), दोनों में से कोई भी शामिल हो सकता है। लेकिन सरकार ने संसदीय समिति की सिफारिश को ठण्डे बस्ते में डाल दिया, जिससे लोकपाल का व्यावहारिक धरातल पर गठन मुश्किल हो गया।
उपर्युक्त परिस्थितियों को देखते हुए सन् 2017 में ‘कॉमन कॉज’ (Common Cause) नामक एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) ने सुप्रीम कोर्ट में लोकपाल के गठन को लेकर याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि वह सर्च कमेटी का जल्द से जल्द गठन करे, ताकि लोकपाल के गठन का मार्ग प्रशस्त हो सके, लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर काई ध्यान नहीं दिया तो फिर से कॉमन कॉज सुप्रीम कोर्ट पहुँची और कहा कि सरकार न्यायालय के आदेश की अवेहलना कर रही है तथा लोकपाल के गठन के संदर्भ में किसी भी तरह का प्रयास नहीं कर रही है। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सर्च कमेटी और लोकपाल के गठन के लिए समय सीमा निश्चित की। सुप्रीम कोर्ट की समय सीमा के पहले ही सर्च कमेटी ने लोकपाल के नामों के सुझाव चयन समिति के पास भेज दिये और अंततः लोकपाल का गठन हो गया।चुनौतियाँ
कुछ विद्वानों का कहना है कि लोकपाल व लोकायुक्त के गठन की प्रक्रिया बहुत जटिल है, जिससे इसके गठन में काफी विलम्ब हो जाता है, जैसे-‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ के आने के लगभग 5 साल बाद लोकपाल का गठन हो पाया।
उपर्युक्त तथ्य के विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि यह सही है कि लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के आने के बाद लोकपाल के गठन में लगभग 5 साल लग गये, जो किसी भी शासन व्यवस्था के लिए उपयुक्त स्थित नहीं है, किन्तु लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण संस्था की जल्दबाजी में गठन करना भी अच्छा नहीं है क्योंकि यह बड़े-बड़े उच्च पदों पर बैठे पदाधिकारियों की गड़बडि़यों की त्वरित जाँच करेगा।
कुछ आलोचकों का मानना है कि भारत में ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ और लोकपाल के व्यावहारिक गठन, दोनों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का भारी अभाव रहा है क्योंकि 2011 में भारी आंदोलन के बाद अधिनियम आया और संसद ने उसमें भी कई बार संशोधन किये, किन्तु अंततः सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद लोकपाल का गठन हो पाया। उल्लेखनीय है कि राजनैतिक इच्छाशक्ति किसी भी संस्था की सफलता के लिए धुरी का कार्य करती है।
‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ के आने के बाद विभिन्न राज्यों ने लोकायुक्तों का गठन किया किन्तु अभी तक संबंधित राज्यों में भ्रष्टाचार में उल्लेखनीय कमी नहीं आयी है। कुछ आलोचकों का तो यहाँ तक कहना है कि बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों या मंत्रियों के द्वारा भ्रष्टाचार में कमी आने की बात तो दूर है, उल्टे इनके भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी हुई है। हम जानते हैं कि केन्द्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने हेतु अनेक जाँच एजेंसियाँ (सीबीआई, सीवीसी, ईडी, इत्यादि) हैं और न्यायालय भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिर भी भ्रष्टाचार देश के प्रशासनिक ढाँचे में जड़ जमाये बैठा है। इस स्थिति में लोकपाल से बहुत ज्यादा उम्मीद उचित नहीं प्रतीत होती। इसके अलावा, अन्य भ्रष्टाचार विरोधी संस्थाओं की तरह लोकपाल को भी पर्याप्त शक्तियाँ नहीं दी गईं हैं, जिससे यह व्यावहारिक धरातल पर दंतहीन-नखहीन व्याघ्र और विषहीन सर्प की तरह साबित हो सकता है।
अंदेशा यह भी है कि अन्य भ्रष्टाचार रोधी एजेंसियों की तरह लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण संस्था में सरकार अपनी विचारधारा से संबंधित लोगों को बैठा सकती है, जो सरकार के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई करने से हिचकेंगे। इसके उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट की सीबीआई पर टिप्पणी को देखा जा सकता है जिसमें न्यायालय ने कहा था कि वह सरकार की पपेट (Poppet) है अर्थात् जो सरकार चाहती है वही सीबीआई बोलती है।
आगे की राह
उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों को त्वरित गति व प्रभावी रूप से हल करने एवं दोषियों को सजा दिलाने के लिए लोकपाल व लोकायुक्त महत्वपूर्ण संस्थाएँ हैं, अतः केन्द्र एवं राज्य सरकारों को इन्हें मजबूत करने के लिए उपयुक्त कदम उठाने चाहिए। अभी लोकपाल का गठन हुआ है, जिसको व्यावहारिक धरातल पर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, इसलिए समय के अनुसार एवं जरुरत के मुताबिक ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में उपयुक्त संशोधन होते रहने चाहिए ताकि इस महत्वपूर्ण संस्था की प्रासंगिकता बरकरार रहे।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (पी-सी-घोष) को राष्ट्रपति ने देश का पहला लोकपाल नियुक्त किया है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली ‘चयन समिति’ (Selection Committee) ने लोकपाल के अध्यक्ष, न्यायिक और गैर-न्यायिक सदस्यों का चयन करके नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति के पास नाम भेजे थे, जिस पर राष्ट्रपति ने अपनी अंतिम मंजूरी दे दी है।
परिचय
लोकपाल एक ‘भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण’ (Anti-corruption Authority) है जिसे ओम्बुड्समैन (Ombudsman)) भी कहा जाता है। यह भ्रष्टाचार एवं अन्य जन शिकायतों के निवारण के लिए संस्थागत तंत्र के रूप में कार्य करता है। भारत में केन्द्र स्तर पर इस भ्रष्टाचार विरोधी संस्था का नाम लोकपाल है और राज्य स्तर पर इस संस्था का नाम लोकायुक्त है। दूसरे शब्दों में, भारत में ओम्बुड्समैन के मॉडल को लोकपाल व लोकायुक्त की संज्ञा दी जाती है और इसके लिए ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ को भी निर्मित किया गया है। इसके अतिरिक्त, भारत में लोकपाल एवं लोकायुक्त को मुख्यतः भ्रष्टाचार निवारण तंत्र के रूप में निर्मित किया किया गया है न कि जनता की शिकायतों के निवारण के संदर्भ में।
लोकपाल के संबंध में महत्वपूर्ण तथ्य
भारत में लोकपाल की अवधारणा स्वीडन से ग्रहण की गई है।
ओम्बुड्समैन की तर्ज पर ‘लोकपाल’ शब्द को 1963 में डॉ- एल-एम- सिंघवी द्वारा गढ़ा गया था।
संसद में सर्वप्रथम लोकपाल से संबंधित विधेयक लोकसभा सदस्य शांति भूषण द्वारा प्रस्तावित किया गया।
लोकपाल शब्द की उत्त्पति संस्कृत शब्दों ‘लोक’ (लोग) तथा ‘पाल’ (रक्षक) से हुई है, जिसका अर्थ है ‘लोगों का रक्षक’।
देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की तरह ही लोकपाल को भी शपथ राष्ट्रपति द्वारा दिलाई जाती है।पृष्ठभूमि
जन शिकायत निवारण तंत्र की अवधारणा स्वीडन में विकसित हुई। सर्वप्रथम 1809 ई- में स्वीडन में ओम्बुड्समैन नामक अधिकारी की नियुक्ति की गई। ओम्बुड्समैन अधिकारी, विधायिका की ओर से जनता की शिकायतों की सुनवाई करता है और उनका निराकरण करता है। इस पैटर्न पर विश्व के 40 से अधिक देशों ने जन शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना अलग-अलग रूपों में की है, जैसे- ब्रिटेन में पार्लियामेंट्री कमिश्नर, फ्रांस में प्रशासनिक न्यायालय एवं पूर्व सोवियत संघ में प्रॉक्यूरेटर की अवधारणा इत्यादि।
भारत में ओम्बुड्समैन के सदृश लोकपाल के पद के सृजन के लिए किए जा रहे प्रयासों का इतिहास कई वर्ष पुराना है। आजादी के बाद ही देश में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक स्वतंत्र संस्था की स्थापना की माँग उठने लगी थी। इसकी स्थापना के लिए एम-सी- सीतलवाड़, एल-एम- सिंघवी एवं अनेक अन्य कानूनविदों तथा सांसदों के साथ-साथ प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966 ई-) ने भी पुरजोर वकालत की थी। प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में केन्द्र स्तर पर लोकपाल के साथ-साथ राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति की संस्तुति भी की थी।
लोकपाल एवं लोकायुक्त विधेयक सर्वप्रथम 1968 ई- में लोक सभा में पेश हुआ और वहाँ से पारित होने के बाद राज्य सभा में भेजा गया। परंतु, लोक सभा के दिसम्बर, 1970 में विघटन के कारण यह राज्य सभा में पारित हुए बिना व्यपगत (Lapsed)) हो गया। इसके बाद यह बिल 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 में लोक सभा में पेश हुआ पर हर बार लोकसभा के विघटन या अन्य कारणों से यह विधेयक व्यपगत हो गया।
सन् 2005 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरकार को लोकपाल एवं लोकायुक्तों की नियुक्ति शीध्र करनी चाहिए, ताकि शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सके, लेकिन सरकार ने आयोग की इस सिफारिश को भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया। इस प्रकार, कई बार संसद में लोकपाल व लोकायुक्त से संबंधित विधेयक के व्यपगत होने और प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को सरकार द्वारा अनसुना कर देने से जनता सन् 2011 में आंदोलित हो गयी। सन् 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में लगभग पूरे देश ने भ्रष्टाचार विरोधी तंत्र (लोकपाल व लोकायुक्त) को कानूनी रूप से गठित करने हेतु माँग की। अन्ततः सन् 2013 में केन्द्र सरकार ने ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ को पारित किया।ब्रिटेन का पार्लियामेंटरी कमिश्नर
यह जनता के शिकायतों को दूर करने की एक प्रभावी एवं जवाबदेह व्यवस्था है जहाँ कोई व्यक्ति अपनी शिकायत सीधे पालियामेन्टरी कमिश्नर को नहीं भेजता बल्कि यहाँ ‘एम-पी- फिल्टर सिस्टम’ (M.P. Filter System) प्रचलित है। अतः प्रत्येक व्यक्ति अपनी शिकायत अपने क्षेत्र के सांसद को सौंपता है और वह शिकायत दूर करने का प्रयत्न करता है। यदि वह इस प्रयत्न में असफल रहता है तो की गई संपूर्ण कार्यवाही सहित इसकी सूचना पार्लियामेन्टरी कमिश्नर को भेजता है और यह उस शिकायत का अंतिम समाधान करता है तथा अपनी रिपोर्ट ब्रिटिश ताज/संसद को सौंपता है।
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013
केन्द्र स्तर पर लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्तों द्वारा स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से भ्रष्टाचार से संबंधित जाँच कराने हेतु ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं-
यह अधिनियम कहता है कि केन्द्र स्तर पर एक लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्तों का गठन किया जायेगा।
लोकपाल की संस्था में एक अध्यक्ष व अधिकतम 8 सदस्यों का प्रावधान है, जिसमें आधे सदस्य (अर्थात् 4 सदस्य) न्यायिक क्षेत्र से होंगे और शेष आधे सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), महिला और अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे।
लोकपाल संस्था के अध्यक्ष व सदस्यों का चयन एक चयन समिति द्वारा किया जायेगा, जिन पर नियुक्ति की अंतिम मुहर राष्ट्रपति की होगी।
लोकपाल सभी लोक सेवकों की जाँच कर सकता है, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री का पद भी लोकपाल की जाँच के दायरे में होगा, लेकिन बहुत सारे विषयों में वे (प्रधानमंत्री) लोकपाल से परे हैं। उनके खिलाफ आरोप के निपटारे के लिए विशेष प्रक्रिया अपनायी जायेगी।
इस अधिनियम का महत्वपूर्ण उपबंध यह भी है कि अभियोजन (Prosecution) के लंबित होने की स्थिति में भी आरोपित लोकसेवक द्वारा भ्रष्ट साधनों से एकत्रित की गई संपत्ति को जब्त करने का आदेश लोकपाल दे सकता है।
सभी संगठन या तत्व जो फॉरेन कॉट्रिब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (एफ.सी.आर.ए.) के तहत विदेशी ड्डोतों से दान या सहायता राशि प्राप्त करते हैं उन्हें भी लोकपाल के दायरे में रखा गया है (यदि ऐसी सहायता राशि प्रतिवर्ष 10 लाख रुपए से ऊपर हो तो)।
लोकपाल संस्था के माध्यम से ईमानदार अधिकारियों को पर्याप्त संरक्षण दिए जाने का भी प्रावधान है।
लोकपाल स्वयं द्वारा प्रेषित किए गए मुद्दे की जाँच कराने के क्रम में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो सहित अन्य जाँच एजेंसियों का अधीक्षण करने एवं उन्हें निर्देश देने की शक्ति से भी युक्त होगा। साथ ही, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो या अन्य जाँच एजेंसियों के वैसे अधिकारी जो लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की जाँच कर रहे हों, तो उनका स्थानान्तरण लोकपाल के अनुमोदन से ही हो सकता है।
अधिनियम प्रारम्भिक जाँच, पड़ताल और अभियोजन के लिए निश्चित समयावधि (6 माह) निर्धारित करता है और इसके लिए विशेष न्यायालयों के गठन का भी उपबंध करता है। प्रारंभिक जाँच, पड़ताल और अभियोजन की निर्धारित समयावधि को 6 माह के लिए और बढ़ाया जा सकता है (यदि समुचित कारण उपलब्ध हो तो)।
विधेयक में इस बात का भी प्रावधान है कि इस अधिनियम के प्रारम्भ की तारीख से 365 दिनों के भीतर राज्य विधायिकाओं को भी विधि द्वारा लोकायुक्त की संस्था का गठन करना होगा।
लोकपाल संस्था के प्रशासकीय व्यय भारत की संचित निधि (Consolidated Fund) पर भारित होंगे। लोकपाल के अध्यक्ष का वेतन, भत्ता और सेवा शर्तें भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के समान होंगी एवं अन्य सदस्यों के वेतन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान होंगी।
इस अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि जो भी लोक सेवक किसी सार्वजनिक संस्था में भ्रष्टाचार को उजागर करता है अर्थात् व्हिसलब्लोअर की भूमिका को निभाता है, उसे पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराई जाये।
यदि लोकपाल को पहली नजर में यह लगता है कि कोई भी लोक सेवक भ्रष्टाचार में लिप्त है तो वह उसे समन जारी कर सकता है, चाहे उस लोक सेवक के खिलाफ जाँच प्रारंभ हुई हो या नहीं।लोकपाल की नियुक्ति प्रक्रिया
केन्द्र स्तर पर लोकपाल की नियुक्ति के लिए दो समितियों की मुख्य भूमिका है-
चयन समिति (Selection committee)
सर्च समिति (Search Committee)
सर्च समिति को चयन समिति की सहायतार्थ हेतु गठित किया गया है। सर्च समिति का दायित्व है कि वह लोकपाल के अध्यक्ष व सदस्यों के नामों को खोजकर चयन समिति को सौंपे। इसके बाद चयन समिति इन नामों से चुनाव करके अंतिम अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति को भेजती है।
सर्च समितिः वर्तमान में इसके आठ सदस्य हैं, जिसमें अनिवार्य रूप से आधे सदस्य अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिला एवं अल्पसंख्यक समुदाय से होते हैं।
चयन समितिः इस समिति में एक अध्यक्ष (प्रधानमंत्री) और चार सदस्य होते हैं। चार सदस्यों में लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष का नेता या लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश या इनके द्वारा नामित किये गए सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश और उक्त चारों के द्वारा संस्तुत कोई प्रख्यात विधि वेत्ता, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
सन् 2013 के बाद की स्थिति
सन् 2013 में ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम’ बनने के बाद सरकार की तरफ से इसे व्यवहार में स्थापित करने के लिए उल्लेखनीय प्रयास नहीं किये गये। शुरु में सरकार ने एक सर्च कमेटी का गठन किया, जिसे लोकपाल व उसके सदस्यों के नाम सुझाने का दायित्व था, लेकिन सर्च कमेटी के अध्यक्ष ने पदभार ग्रहण करने से मना कर दिया और कहा कि इस सर्च कमेटी को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं है।
सन् 2014 में नई सरकार के गठित होने पर सर्च कमेटी के उपर्युक्त मुद्दों का हल ढूँढा गया और सर्च कमेटी को पर्याप्त स्वतंत्रता व शक्ति प्रदान की गयी। लेकिन इसके बाद से नई समस्याओं ने जन्म लिया जो चयन समिति से संबंधित थी। चयन समिति में ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ के रूप में सदस्य नहीं मिल पा रहा था, क्योंकि सन् 2014 के आम चुनाव में किसी भी विपक्षी पार्टी ने इतनी सीटें नहीं हासिल की थीं कि वह ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ का दर्जा हासिल कर सके। सन् 2015 में संसदीय समिति की रिपोर्ट आई कि ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में संशोधन करके यह जोड़ा जाये कि चयन समिति में सदस्य के रूप में ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता (चाहे उसे लोकसभा में विपक्षी पार्टी बनने का अवसर मिला हो या नहीं), दोनों में से कोई भी शामिल हो सकता है। लेकिन सरकार ने संसदीय समिति की सिफारिश को ठण्डे बस्ते में डाल दिया, जिससे लोकपाल का व्यावहारिक धरातल पर गठन मुश्किल हो गया।
उपर्युक्त परिस्थितियों को देखते हुए सन् 2017 में ‘कॉमन कॉज’ (Common Cause) नामक एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) ने सुप्रीम कोर्ट में लोकपाल के गठन को लेकर याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि वह सर्च कमेटी का जल्द से जल्द गठन करे, ताकि लोकपाल के गठन का मार्ग प्रशस्त हो सके, लेकिन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर काई ध्यान नहीं दिया तो फिर से कॉमन कॉज सुप्रीम कोर्ट पहुँची और कहा कि सरकार न्यायालय के आदेश की अवेहलना कर रही है तथा लोकपाल के गठन के संदर्भ में किसी भी तरह का प्रयास नहीं कर रही है। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सर्च कमेटी और लोकपाल के गठन के लिए समय सीमा निश्चित की। सुप्रीम कोर्ट की समय सीमा के पहले ही सर्च कमेटी ने लोकपाल के नामों के सुझाव चयन समिति के पास भेज दिये और अंततः लोकपाल का गठन हो गया।चुनौतियाँ
कुछ विद्वानों का कहना है कि लोकपाल व लोकायुक्त के गठन की प्रक्रिया बहुत जटिल है, जिससे इसके गठन में काफी विलम्ब हो जाता है, जैसे-‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ के आने के लगभग 5 साल बाद लोकपाल का गठन हो पाया।
उपर्युक्त तथ्य के विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि यह सही है कि लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के आने के बाद लोकपाल के गठन में लगभग 5 साल लग गये, जो किसी भी शासन व्यवस्था के लिए उपयुक्त स्थित नहीं है, किन्तु लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण संस्था की जल्दबाजी में गठन करना भी अच्छा नहीं है क्योंकि यह बड़े-बड़े उच्च पदों पर बैठे पदाधिकारियों की गड़बडि़यों की त्वरित जाँच करेगा।
कुछ आलोचकों का मानना है कि भारत में ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ और लोकपाल के व्यावहारिक गठन, दोनों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का भारी अभाव रहा है क्योंकि 2011 में भारी आंदोलन के बाद अधिनियम आया और संसद ने उसमें भी कई बार संशोधन किये, किन्तु अंततः सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद लोकपाल का गठन हो पाया। उल्लेखनीय है कि राजनैतिक इच्छाशक्ति किसी भी संस्था की सफलता के लिए धुरी का कार्य करती है।
‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ के आने के बाद विभिन्न राज्यों ने लोकायुक्तों का गठन किया किन्तु अभी तक संबंधित राज्यों में भ्रष्टाचार में उल्लेखनीय कमी नहीं आयी है। कुछ आलोचकों का तो यहाँ तक कहना है कि बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों या मंत्रियों के द्वारा भ्रष्टाचार में कमी आने की बात तो दूर है, उल्टे इनके भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी हुई है। हम जानते हैं कि केन्द्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने हेतु अनेक जाँच एजेंसियाँ (सीबीआई, सीवीसी, ईडी, इत्यादि) हैं और न्यायालय भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिर भी भ्रष्टाचार देश के प्रशासनिक ढाँचे में जड़ जमाये बैठा है। इस स्थिति में लोकपाल से बहुत ज्यादा उम्मीद उचित नहीं प्रतीत होती। इसके अलावा, अन्य भ्रष्टाचार विरोधी संस्थाओं की तरह लोकपाल को भी पर्याप्त शक्तियाँ नहीं दी गईं हैं, जिससे यह व्यावहारिक धरातल पर दंतहीन-नखहीन व्याघ्र और विषहीन सर्प की तरह साबित हो सकता है।
अंदेशा यह भी है कि अन्य भ्रष्टाचार रोधी एजेंसियों की तरह लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण संस्था में सरकार अपनी विचारधारा से संबंधित लोगों को बैठा सकती है, जो सरकार के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई करने से हिचकेंगे। इसके उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट की सीबीआई पर टिप्पणी को देखा जा सकता है जिसमें न्यायालय ने कहा था कि वह सरकार की पपेट (Poppet) है अर्थात् जो सरकार चाहती है वही सीबीआई बोलती है।
आगे की राह
उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों को त्वरित गति व प्रभावी रूप से हल करने एवं दोषियों को सजा दिलाने के लिए लोकपाल व लोकायुक्त महत्वपूर्ण संस्थाएँ हैं, अतः केन्द्र एवं राज्य सरकारों को इन्हें मजबूत करने के लिए उपयुक्त कदम उठाने चाहिए। अभी लोकपाल का गठन हुआ है, जिसको व्यावहारिक धरातल पर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, इसलिए समय के अनुसार एवं जरुरत के मुताबिक ‘लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ में उपयुक्त संशोधन होते रहने चाहिए ताकि इस महत्वपूर्ण संस्था की प्रासंगिकता बरकरार रहे।
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