लोकतंत्र में ‘नोटा’

  • भारत में चुनावों के दौरान उम्मीदवारों द्वारा किए गए वायदे और सत्ता में आने के बाद उनके तोड़े जाने से मतदाताओं में रोष पनपता चला गया। इस रोष को अभिव्यक्त करने के लिए जनता कोई ऐसा विकल्प ढूंढ रही थी, जिससे वह अपनी नापसंद वाले उम्मीदवारों को नकार सके।
  • मतदाता की इस आवाज को सुनते हुए उच्चतम न्यायालय ने 2013 के एक ऐतिहासिक निर्णय में चुनाव आयोग को ईवीएम में ‘नोटा’ (नन ऑफ द अबव) बटन उपलब्ध कराने का आदेश दिया। इसके पीछे दो उद्देश्य थे। (1) अपनी पसंद का प्रत्याशी न होने पर मतदाता इस बटन का प्रयोग कर सके। वह मतदान अवश्य करे। (2) राजनीतिक दलों पर अच्छे प्रत्याशी खड़े करने का दबाव बना रहे।
  • 2013 में ‘नोटा’ का विकल्प मिलने के बाद पहली बार 15 लाख लोगों ने इसका इस्तेमाल किया। 2014 के लोकसभा चुनावों में करीब साठ लाख लोगों ने इस विकल्प को चुना था। यह 21 पार्टियों को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा था।
  • 2015 से इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया। 2018 में इसे पहली बार देश के उम्मीदवारों के समकक्ष दर्जा दिया गया। 2018 में हुए हरियाणा के नगर निगम चुनाव में, चुनाव आयोग ने निर्णय लिया कि यदि किसी भी सीट पर नोटा विजयी होता है, तो ऐसी स्थिति में वहां सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित हो जाएंगे और चुनाव दोबारा कराया जाएगा। अभी तक नोटा के विजयी रहने की स्थिति में दूसरे स्थान पर रहने वाले प्रत्याशी को ही विजयी घोषित करने का नियम था।
  • सवाल यह है कि आखिर देश में चुनाव प्रक्रिया में नोटा की जरूरत क्यों पड़ी?
दरअसल, किसी भी राजनीतिक दल का एकमात्र उद्देश्य यही रहता है कि वह ऐसे व्यक्ति को अपना प्रत्याशी बनाए, जो किसी भी कीमत पर जीते; भले ही उसका चरित्र अच्छा न हो, वह उस पद के योग्य न हो। ऐसे में प्रत्याशी धनबल अथवा बाहुबल के प्रभाव से किसी पार्टी का टिकट प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। इस प्रकार के चुनावों में मतदाता के पास दो ही विकल्प बच जाते हैं। (1) वह उन तमाम प्रत्याशियों में से उस प्रत्याशी को अपना मत दे, जो उसकी नजर में सबसे कम खराब छवि वाला हो। और (2) चुनाव में अच्छा प्रत्याशी न होने पर वह मतदान ही न करे।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की अधिक से अधिक भागीदारी के लिए ही ‘नोटा’ जैसे विकल्प पर विचार किया गया, ताकि मतदाता कोई भी प्रत्याशी योग्य न लगने पर उन्हें नकार सके, लेकिन मतदान करने अवश्य जाए।
इस रूप में ‘नोटा’ एक नेताविहीन राजनीतिक आंदोलन है। आज के कटुतापूर्ण और घृणित राजनैतिक वातावरण में इसकी बहुत जरुरत भी है।
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Milan Tomic

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