चुनावी-उम्मीदवारों के लिए शैक्षणिक योग्यता

सन् 2015 में दो राज्यों- हरियाणा और राजस्थान ने

अपने स्थानीय चुनावों में प्रत्याशियों के लिए कई तरह की योग्यताओं का होना आवश्यक कर दिया। अभी तक के भारत के चुनावी इतिहास में ऐसा होना कुछ प्रश्न अवश्य खड़े करता है। देखते हैं कि ये प्रतिबंध क्या हैं और कितने संवैधानिक हैं ।
  • मार्च 2015 में राजस्थान राज्य ने पंचायती राज संशोधन कानून के तहत स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय कर दी। इसमें जिला परिषद और पंचायत समिति के प्रत्याशियों के लिए दसवीं पास और सरपंच के लिए आठवीं पास न्यूनतम योग्यता रखी गई।
  • हरियाणा सरकार ने भी नया कानून बनाकर स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए पुरुष प्रत्याशी का दसवीं पास व महिला प्रत्याशी का आठवीं पास, जबकि दलित महिला प्रत्याशी का पांचवी पास होना आवश्यक कर दिया। साथ ही प्राथमिक कृषि सहयोग संगठन या कृषि कॉपरेटिव बैंक की बकाया धनराशि और बिजली बिलों का भुगतान न कर पाने वालों को भी चुनाव में अयोग्य माना गया।
  • दोनों ही राज्यों ने चुनावी प्रत्याशियों के घरों में शौचालयों का होना आवश्यक कर दिया। इसके परिणामस्वरूप लगभग 68 प्रतिशत दलित पुरुष एवं 41 प्रतिशत दलित महिलाएं चुनाव लड़ने की योग्यता सीमा से बाहर हो गए।

ऐसा कानून कितने संवैधानिक हैं?

  • सर्वोच्च न्यायालय ने इन राज्यों की शर्तों का समर्थन दो आधारों पर किया है।
  • पहला तो यह कि न्यायधीशों ने शिक्षा को योग्यता का पैमाना माना।
  • दूसरे, उनका मानना था कि शिक्षा ही व्यक्ति में सही और गलत के बीच फैसला लेने की समझ पैदा करती है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की यह दलील बी.आर. आंबेडकर के सिद्धांतों के विरुद्ध है। उन्होंने सन् 1928 में साइमन कमीशन को एक मेमोरेंडम देते हुए लिखा था कि- ‘मेरे मत में शिक्षा की योग्यता का पैमाना मानने वाले दो गलतियाँ करते हैं। पहली गलती यह मानना कि अशिक्षित व्यक्ति मूर्ख होता है। दूसरी यह कि शिक्षा व्यक्ति को ज्ञान या बुद्धिमत्ता से भर देती है।’ अंबेडर के इस कथन के पीछे यह तथ्य छिपा था कि अधिकतर उच्च जाति के लोग ही अधिक पढ़े लिखे हैं। लेकिन उन्होंने अपनी इस शिक्षा का उपयोग निचली जातियों को ऊपर उठाने में कभी नहीं किया। वे उन पर केवल शासन करते रहे। किसी भी एक जाति को दूसरी जाति पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है।
    • राज्य सरकारों का यह फैसला एक बात स्पष्ट करता है कि चुनाव लड़ना सभी का अधिकार नहीं है। इस बात को अगर 2003 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के संदर्भ में देखें, तो भी यही बात सामने आती है। तब सर्वोच्च न्यायालय ने दो संतानों से ज्यादा रखने वालों को पंचायत चुनावों से वंचित रखने का फैसला सुनाया था।
    • ये कानून संविधान की दृष्टि में असंगत कहे जाएंगे, क्योंकि ये दुनिया में भारत जैसे सबसे बड़े प्रजातंत्र के स्वरूप को सीमित करते है।
    • फिर प्रश्न यह भी उठता है कि अगर स्थानीय स्तर पर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता इतनी महत्वपूर्ण है, तो यह विधायकों और सांसदों के लिए क्यों नहीं?

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Milan Tomic

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